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Chapter 5: सलवार सआदत हसन मंटो

 सलवार सआदत हसन मंटो

दिल्ली आने से पहले वो अंबाला छावनी में थी जहां कई गोरे इस के गाहक थे। इन गोरों से मिलने-जुलने के बाइस वो अंग्रेज़ी के दस पंद्रह जुमले सीख गई थी, उन को वो आम गुफ़्तगु में इस्तिमाल नहीं करती थी लेकिन जब वो दिल्ली में आई और उस का कारोबार न चला तो एक रोज़ उस ने अपनी पड़ोसन तमंचा जान से कहा। "दिस लीफ़... वेरी बैड।" यानी ये ज़िंदगी बहुत बुरी है जबकि खाने ही को नहीं मिलता।

अबनाला छावनी में उस का धंदा बहुत अच्छी तरह चलता था। छावनी के गोरे शराब पी कर उस के पास आजाते थे और वो तीन चार घंटों ही में आठ दस गोरों को निमटा कर बीस तीस रुपय पैदा कर लिया करती थी। ये गोरे, उस के हम वतनों के मुक़ाबले में बहुत अच्छे थे। इस में कोई शक नहीं कि वो ऐसी ज़बान बोलते थे जिस का मतलब सुलताना की समझ में नहीं आता था मगर उन की ज़बान से ये ला-इल्मी उस के हक़ में बहुत अच्छी साबित होती थी। अगर वो उस से कुछ रियायत चाहते तो वो सर हिला कर कह दिया करती थी। "साहिब, हमारी समझ में तुम्हारी बात नहीं आता।" और अगर वो उस से ज़रूरत से ज़्यादा छेड़छाड़ करते तो वो उन को अपनी ज़बान में गालियां देना शुरू करदेती थी। वो हैरत में उस के मुँह की तरफ़ देखते तो वो उन से कहती "साहिब, तुम एक दम उल्लु का पट्ठा है। हराम-ज़ादा है... समझा।" ये कहते वक़्त वो अपने लहजा में सख़्ती पैदा न करती बल्कि बड़े प्यार के साथ उन से बातें करती। ये गोरे हंस देते और हंसते वक़्त वो सुलताना को बिलकुल उल्लू के पट्ठे दिखाई देते।

मगर यहां दिल्ली में वो जब से आई थी एक गोरा भी उस के यहां नहीं आया था। तीन महीने उस को हिंदूस्तान के इस शहर में रहते होगए थे जहां उस ने सुना था कि बड़े लॉट साहब रहते हैं, जो गरमीयों में शिमले चले जाते हैं, मगर सिर्फ़ छः आदमी उस के पास आए थे। सिर्फ़ छः, यानी महीने में दो और इन छः ग्राहकों से उस ने ख़ुदा झूट न बुलवाए तो साढ़े अठारह रुपय वसूल किए थे। तीन रुपय से ज़्यादा पर कोई मानता ही नहीं था। सुलताना ने इन में से पाँच आदमीयों को अपना रेट दस रुपय बताया था मगर तअज्जुब की बात है कि इन में से हर एक ने यही कहा। "भई हम तीन रुपय से एक कोड़ी ज़्यादा न देंगे।" न जाने क्या बात थी कि इन में से हर एक ने उसे सिर्फ़ तीन रुपय के काबिल समझा। चुनांचे जब छटा आया तो उस ने ख़ुद इस से कहा। "देखो, मैं तीन रुपय एक टीम के लूंगी। इस से एक धेला तुम कम कहो तो मैं न लूंगी। अब तुम्हारी मर्ज़ी हो तो रहो वर्ना जाओ।" छट्ठे आदमी ने ये बात सुन कर तकरार न की और इस के हाँ ठहर गया। जब दूसरे कमरे में दरवाज़े वरवाज़े बंद करके वो अपना कोट उतारने लगा तो सुलताना ने कहा। "लाईए एक रुपया दूध का।" उस ने एक रुपया तो ना दिया लेकिन नए बादशाह की चमकती हुई अठन्नी जेब में से निकाल कर उस को दे दी और सुलताना ने भी चुपके से ले ली कि चलो जो आया है ग़नीमत है।

साढ़े अठारह रुपय तीन महीनों में... बीस रुपय माहवार तो इस कोठे का किराया था जिस को मालिक मकान अंग्रेज़ी ज़बान में फ़्लैट कहता था।

इस फ़्लैट में ऐसा पाख़ाना था जिस में ज़ंजीर खींचने से सारी गंदगी पानी के ज़ोर से एक दम नीचे नल में ग़ायब हो जाती थी और बड़ा शोर होता था। शुरू शुरू में तो इस शोर ने उसे बहुत डराया था। पहले दिन जब वो रफ़ा-ए-हाजत के लिए इस पाख़ाना में गई तो उस के कमर में शिद्दत का दर्द होरहा था। फ़ारिग़ हो कर जब उठने लगी तो उस ने लटकी हुई ज़ंजीर का सहारा ले लिया। इस ज़ंजीर को देख कर उस ने ख़याल किया चूँकि ये मकान ख़ास हम लोगों की रिहायश के लिए तैय्यार किए गए हैं ये ज़ंजीर इस लिए लगाई गई है कि उठते वक़्त तकलीफ़ न हो और सहारा मिल जाया करे मगर जूंही उस ने ज़ंजीर पकड़ कर उठना चाहा, ऊपर खट खट सी हूई और फिर एक दम पानी इस शोर के साथ बाहर निकला कि डर के मारे इस के मुँह से चीख़ निकल गई।

ख़ुदाबख़्श दूसरे कमरे में अपना फोटोग्राफी का सामान दरुस्त कररहा था और एक साफ़ बोतल में हाई डरो कौनैन डाल रहा था कि उस ने सुलताना की चीख़ सुनी। दौड़ कर वह बाहर निकला और सुलताना से पूछा। "किया हुआ?... ये चीख़ तुम्हारी थी?"

सुलताना का दिल धड़क रहा था। उस ने कहा। "ये मोह पाख़ाना है या क्या है। बीच में ये रेल गाड़ीयों की तरह ज़ंजीर किया लटका रखी है। मेरी कमर में दर्द था। मैंने कहा चलो इस का सहारा ले लूंगी, पर इस मोय ज़ंजीर को छेड़ना था कि वो धमाका हुआ कि मैं तुम से क्या कहूं।"

इस पर ख़ुदाबख़्श बहुत हंसा था और उस ने सुलताना को इस पैख़ाने की बाबत सब कुछ बता दिया था कि ये नए फैश का है जिस में ज़ंजीर हिलाने से सब गंदगी नीचे ज़मीन में धँस जाती है।

ख़ुदाबख़्श और सुलताना का आपस में कैसे संबंध हुआ ये एक लंबी कहानी है। ख़ुदाबख़्श रावलपिंडी का था। इनटर नट्स पास करने के बाद उस ने लारी चलाना सीखा, चुनांचे चार बरस तक वो रावलपिंडी और कश्मीर के दरमयान लारी चलाने का काम करता रहा। इस के बाद कश्मीर में उस की दोस्ती एक औरत से होगई। उस को भगा कर वो लाहौर ले आया। लाहौर में चूँकि उस को कोई काम न मिला। इस लिए उस ने औरत को पेशे बिठा दिया। दो तीन बरस तक ये सिलसिला जारी रहा और वो औरत किसी और के साथ भाग गई। ख़ुदाबख़्श को मालूम हुआ कि वो अबनाला में है। वो उस की तलाश में अबनाला आया जहां उस को सुलताना मिल गई। सुलताना ने उस को पसंद किया, चुनांचे दोनों का संबंध हो गया।

ख़ुदाबख़्श के आने से एक दम सुलताना का कारोबार चमक उठा। औरत चूँ कि ज़ईफ़-उल-एतिका़द थी। इस लिए उस ने समझा कि ख़ुदाबख़्श बड़ा भागवान है जिस के आने से इतनी तरक़्क़ी होगई, चुनांचे इस ख़ुश एतिक़ादी ने ख़ुदाबख़्श की वक़ात उस की नज़रों में और भी बढ़ा दी।

ख़ुदाबख़्श आदमी मेहनती था। सारा दिन हाथ पर हाथ धर कर बैठना पसंद नहीं करता था। चुनांचे उस ने एक फ़ोटो ग्राफ़र से दोस्ती पैदा की जो रेलवे स्टेशन के बाहर मिनट कैमरे से फ़ोटो खींचा करता था। इस लिए उस ने फ़ोटो खींचना सीख लिया। फिर सुलताना से साठ रुपय लेकर कैमरा भी ख़रीद लिया। आहिस्ता आहिस्ता एक पर्दा बनवाया, दो कुर्सियां खरीदीं और फ़ोटो धोने का सब सामान लेकर उस ने अलाहिदा अपना काम शुरू कर दिया।

काम चल निकला, चुनांचे उस ने थोड़ी ही देर के बाद अपना अड्डा अबनाले छावनी में क़ायम कर दिया। यहां वो गोरों के फ़ोटो खींचता रहता। एक महीने के अंदर अंदर उस की छावनी के मुतअद्दिद गोरों से वाक़फ़ियत होगई, चुनांचे वो सुलताना को वहीं ले गया। यहां छावनी में ख़ुदाबख़्श के ज़रिया से कई गोरे सुलताना के मुस्तक़िल गाहक बन गए और उस की आमदनी पहले से दोगुनी हो गई।

सुलताना ने कानों के लिए बुनदे ख़रीदे। साढ़े पाँच तोले की आठ कन्गनीयाँ भी बनवा लीं। दस पंद्रह अच्छी अच्छी साड़ियां भी जमा करलीं, घर में फ़र्नीचर वग़ैरा भी आगया। क़िस्सा मुख़्तसर ये कि अबनाला छावनी में वो बड़ी ख़ुशहाल थी मगर इका इकी न जाने ख़ुदाबख़्श के दिल में क्या समाई कि उस ने दिल्ली जाने की ठान ली। सुलताना इनकार कैसे करती जबकि ख़ुदाबख़्श को अपने लिए बहुत मुबारक ख़याल करती थी। उस ने ख़ुशी ख़ुशी दिल्ली जाना क़बूल करलिया। बल्कि उस ने ये भी सोचा कि इतने बड़े शहर में जहां लॉट साहब रहते हैं उस का धंदा और भी अच्छा चलेगा। अपनी सहेलियों से वो दिल्ली की तारीफ़ सुन चुकी थी। फिर वहां हज़रत निज़ाम उद्दीन औलिया की ख़ानक़ाह थी। जिस से इसे बेहद अक़ीदत थी, चुनांचे जल्दी जल्दी घर का भारी सामान बेच बाच कर वो ख़ुदाबख़्श के साथ दिल्ली आ गई। यहां पहुंच कर ख़ुदाबख़्श ने बीस रुपय माहवार पर एक छोटा सा फ़्लैट ले लिया जिस में वो दोनों रहने लगे।

एक ही क़िस्म के नए मकानों की लंबी सी क़तार सड़क के साथ साथ चली गई थी। म्यूनसिंपल कमेटी ने शहर का ये हिस्सा ख़ास कसबियों के लिए मुक़र्रर कर दिया था ताकि वो शहर में जगह जगह अपने अड्डे न बनाएं। नीचे दुकानें थीं और ऊपर दोमंज़िला रिहायशी फ़्लैट। चूँकि सब इमारतें एक ही डिज़ाइन की थीं इस लिए शुरू शुरू में सुलताना को अपना फ़्लैट तलाश करने में बहुत दिक्कत महसूस हुई थी पर जब नीचे लांड्री वाले ने अपना बोर्ड घर की पेशानी पर लगा दिया तो उस को एक पक्की निशानी मिल गई। यहां मैले कपड़ों की धुलाई की जाती है। ये बोर्ड पढ़ते ही वो अपना फ़्लैट तलाश कर लिया करती थी। इसी तरह उस ने और बहुत सी निशानीयां क़ायम करली थीं, मसलन बड़े बड़े हुरूफ़ में जहां कोयलों की दूकान लिखा था वहां उस की सहेली हीरा बाई रहती थी जो कभी कभी रेडीयो घर में गाने जाया करती थी। जहां शरिफा के खाने का आला इंतिज़ाम है। लिखा था वहां उस की दूसरी सहेली मुख़तार रहती थी। निवाड़ के कारख़ाना के ऊपर अनवरी रहती थी जो उसी कारख़ाना के सेठ के पास मुलाज़िम थी। चूँकि सेठ साहब को रात के वक़्त अपने कारख़ाना की देख भाल करना होती थी इस लिए वो अनवरी के पास ही रहते थे।

दूकान खोलते ही गाहक थोड़े ही आते हैं। चुनांचे जब एक महीने तक सुलताना बेकार रही तो उस ने यही सोच कर अपने दिल को तसल्ली दी, पर जब दो महीने गुज़र गए और कोई आदमी उस के कोठे पर न आया तो उसे बहुत तशवीश हुई। उस ने ख़ुदाबख़्श से कहा। "क्या बात है ख़ुदाबख़्श, दो महीने आज पूरे होगए हैं हमें यहां आए हुए, किसी ने इधर का रुख़ भी नहीं किया... मानती हूँ आजकल बाज़ार बहुत मंदा है, पर इतना मंदा भी तो नहीं कि महीने भर में कोई शक्ल देखने ही में न आए।" ख़ुदाबख़्श को भी ये बात बहुत अर्सा से खटक रही थी मगर वो ख़ामोश था, पर जब सुलताना ने ख़ुद बात छेड़ी तो उस ने कहा। "मैं कई दिनों से इस की बाबत सोच रहा हूँ। एक बात समझ में आती है, वो ये कि जंग की वजह से लोग बाग दूसरे धुंदों में पड़ कर इधर का रस्ता भूल गए हैं... या फिर ये हो सकता है कि... " वो इस के आगे कुछ कहने ही वाला था कि सीढ़ीयों पर किसी के चढ़ने की आवाज़ आई। ख़ुदाबख़्श और सुलताना दोनों इस आवाज़ की तरफ़ मुतवज्जा हुए। थोड़ी देर के बाद दस्तक हुई। ख़ुदाबख़्श ने लपक कर दरवाज़ा खोला। एक आदमी अंदर दाख़िल हुआ। ये पहला गाहक था जिस से तीन रुपय में सौदा तय हुआ। इस के बाद पाँच और आए यानी तीन महीने में छः, जिन से सुलताना ने सिर्फ़ साढ़े अठारह रुपय वसूल किए।

बीस रुपय माहवार तो फ़्लैट के किराया में चले जाते थे, पानी का टैक्स और बिजली का बिल जुदा था। इस के इलावा घर के दूसरे ख़र्च थे। खाना पीना, कपड़े लत्ते, दवा दारू और आमदन कुछ भी नहीं थी। साढ़े अठारह रुपय तीन महीने में आए तो उसे आमदन तो नहीं कह सकते। सुलताना परेशान होगई। साढ़े पाँच तोले की आठ कन्गनीयाँ जो उस ने अंबाले में बनवाई थीं आहिस्ता आहिस्ता बक गईं। आख़िरी कन्गनी की जब बारी आई तो उस ने ख़ुदाबख़्श से कहा। "तुम मेरी सुनो और चलो वापस अंबाले में यहां क्या धरा है?... भई होगा, पर हमें तो ये शहर रास नहीं आया। तुम्हारा काम भी वहां ख़ूब चलता था, चलो, वहीं चलते हैं। जो नुक़्सान हुआ है उस को अपना सर सदक़ा समझो। इस कन्गनी को बीच कर आओ, मैं अस्बाब वग़ैरा बांध कर तैय्यार रखती हूँ। आज रात की गाड़ी से यहां से चल देंगे।"

ख़ुदाबख़्श ने कन्गनी सुलताना के हाथ से ले ली और कहा। "नहीं जान-ए-मन, अंबाला अब नहीं जाऐंगे, यहीं दिल्ली में रह कर कमाएं गे। ये तुम्हारी चूड़ियां सब की सब यहीं वापस आयेंगी । अल्लाह पर भरोसा रखो। वो बड़ा कारसाज़ है। यहां भी वो कोई न कोई अस्बाब बना ही देगा।"

सुलताना चुप होरही, चुनांचे आख़िरी कन्गनी हाथ से उतर गई। बचे हाथ देख कर उस को बहुत दुख होता था, पर क्या करती, पेट भी तो आख़िर किसी हीले से भरना था।

जब पाँच महीने गुज़र गए और आमदन ख़र्च के मुक़ाबले में चौथाई से भी कुछ कम रही तो सुलताना की परेशानी और ज़्यादा बढ़ गई। ख़ुदाबख़्श भी सारा दिन अब घर से ग़ायब रहने लगा था। सुलताना को इस का भी दुख था। इस में कोई शक नहीं कि पड़ोस में उस की दो तीन मिलने वालियां मौजूद थीं जिन के साथ वो अपना वक़्त काट सकती थी पर हर रोज़ उन के यहां जाना और घंटों बैठे रहना उस को बहुत बुरा लगता था। चुनांचे आहिस्ता आहिस्ता उस ने इन सहेलीयों से मिलना-जुलना बिलकुल तर्क कर दिया। सारा दिन वो अपने सुनसान मकान में बैठी रहती। कभी छालीया काटती रहती, कभी अपने पुराने और फटे हुए कपड़ों को सीती रहती और कभी बाहर बालकोनी में आकर जंगले के साथ खड़ी हो जाती और सामने रेलवे शैड में साकित और मुतहर्रिक इंजनों की तरफ़ घंटों बेमतलब देखती रहती।

सड़क की दूसरी तरफ़ माल गोदाम था जो उस कोने से इस कोने तक फैला हुआ था। दाहिने हाथ को लोहे की छत के नीचे बड़ी बड़ी गांठें पड़ी रहती थीं और हर क़िस्म के माल अस्बाब के ढेर से लगे रहते थे। बाएं हाथ को खुला मैदान था जिस में बेशुमार रेल की पटड़ीयाँ बिछी हूई थीं। धूप में लोहे की ये पटड़ियाँ चमकतीं तो सुलताना अपने हाथों की तरफ़ देखती जिन पर नीली नीली रगें बिलकुल इन पटड़ियों की तरह उभरी रहती थीं, इस लंबे और खुले मैदान में हरवक़त इंजन और गाड़ियां चलती रहती थीं। कभी इधर कभी उधर। इन इंजनों और गाड़ीयों की छक छक फ़क़ फ़क़ सदा गूंजती रहती थी। सुबह सवेरे जब वो उठ कर बालकोनी में आती तो एक अजीब समां नज़र आता। धुंदलके में इंजनों के मुँह से गाढ़ा गाढ़ा धुआँ निकलता था और गदले आसमान की जानिब मोटे और भारी आदमीयों की तरह उठता दिखाई देता था। भाप के बड़े बड़े बादल भी एक शोर के साथ पटड़ियों से उठते थे और आँख झपकने की देर में हवा के अंदर घुल मिल जाते थे। फिर कभी कभी जब वो गाड़ी के किसी डिब्बे को जिसे इंजन ने धक्का दे कर छोड़ दिया हो अकेले पटड़ियों पर चलता देखती तो उसे अपना ख़याल आता। वो सोचती कि उसे भी किसी ने ज़िंदगी की पटड़ी पर धक्का दे कर छोड़ दिया है और वो ख़ुदबख़ुद जा रही है। दूसरे लोग कांटे बदल रहे हैं और वो चली जा रही है... न जाने कहाँ। फिर एक रोज़ ऐसा आएगा जब इस धक्के का ज़ोर आहिस्ता आहिस्ता ख़त्म हो जाएगा और वो कहीं रुक जाएगी। किसी ऐसे मुक़ाम पर जो उस का देखा भाला न होगा।

यूं तो वो बेमतलब घंटों रेल की इन टेढ़ी बांकी पटड़ियों और ठहरे और चलते हूए इंजनों की तरफ़ देखती रहती थी पर तरह तरह के ख़याल उस के दिमाग़ में आते रहते थे। अंबाला छावनी में जब वो रहती थी तो स्टेशन के पास ही उस का मकान था मगर वहां उस ने कभी इन चीज़ों को ऐसी नज़रों से नहीं देखा था। अब तो कभी कभी उस के दिमाग़ में ये भी ख़याल आता कि ये जो सामने रेल की पटड़ियों का जाल सा बिछा है और जगह जगह से भाप और धुआँ उठ रहा है एक बहुत बड़ा चकला है। बहुत सी गाड़ियां हैं जिन को चंद मोटे मोटे इंजन इधर उधर धकेलते रहते हैं। सुलताना को तो बाअज़ औक़ात ये इंजन सेठ मालूम होते हैं जो कभी कभी अंबाला में उस के हाँ आया करते थे। फिर कभी कभी जब वो किसी इंजन को आहिस्ता आहिस्ता गाड़ीयों की क़तार के पास से गुज़रता देखती तो उसे ऐसा महसूस होता कि कोई आदमी चकले के किसी बाज़ार में से ऊपर कोठों की तरफ़ देखता जा रहा है।

सुलताना समझती थी कि ऐसी बातें सोचना दिमाग़ की ख़राबी का बाइस है, चुनांचे जब इस क़िस्म के ख़याल उस को आने लगे तो उस ने बालकोनी में जाना छोड़ दिया। ख़ुदाबख़्श से उस ने बारहा कहा। "देखो, मेरे हाल पर रहम करो। यहां घर में रहा करो। मेंw सारा दिन यहां बीमारों की तरह पड़ी रहती हूँ। मगर उस ने हर बार सुलताना से ये कह कर उस की तश्फ़ी करदी। जान-ए-मन... मैं बाहर कुछ कमाने की फ़िक्र कर रहा हूँ। अल्लाह ने चाहा तो चंद दिनों ही में बेड़ा पार हो जाएगा।"

पूरे पाँच महीने होगए थे मगर अभी तक न सुलताना का बेड़ा पार हुआ था न ख़ुदाबख़्श का।

मुहर्रम का महीना सर पर आरहा था मगर सुलताना के पास काले कपड़े बनवाने के लिए कुछ भी न था। मुख़तार ने लेडी हैमिल्टन की एक नई वज़ा की क़मीज़ बनवाई थी जिस की आसतीनें काली जॉर्जजट की थीं। इस के साथ मैच करने के लिए उस के पास काली साटन की सलवार थी जो काजल की तरह चमकती थी। अनवरी ने रेशमी जॉर्जजट की एक बड़ी नफ़ीस साड़ी ख़रीदी थी। उस ने सुलताना से कहा था कि वो इस साड़ी के नीचे सफ़ैद बोसकी का पेटीकोट पहनेगी क्योंकि ये नया फ़ैशन है। इस साड़ी के साथ पहनने को अनवरी काली मख़मल का एक जूता लाई थी जो बड़ा नाज़ुक था। सुलताना ने जब ये तमाम चीज़ें देखीं तो उस को इस एहसास ने बहुत दुख दिया कि वो मुहर्रम मनाने के लिए ऐसा लिबास ख़रीदने की इस्तिताअत नहीं रखती।

अनवरी और मुख़तार के पास ये लिबास देख कर जब वो घर आई तो उस का दिल बहुत मग़्मूम था। उसे ऐसा मालूम होता था कि फोड़ा सा उस के अंदर पैदा होगया है। घर बिलकुल ख़ाली था। ख़ुदाबख़्श हस्ब-ए-मामूल बाहर था। देर तक वो दरी पर गाव तकिया सर के नीचे रख कर लेटी रही, पर जब उस की गर्दन ऊंचाई के बाइस अकड़ सी गई तो उठ कर बाहर बालकोनी में चली गई ताकि ग़म अफ़्ज़ा ख़यालात को अपने दिमाग़ में से निकाल दे।

सामने पटड़ियों पर गाड़ीयों के डिब्बे खड़े थे पर इंजन कोई भी न था। शाम का वक़्त था। छिड़काओ हो चुका था इस लिए गर्द-ओ-गुबार दब गया था। बाज़ार में ऐसे आदमी चलने शुरू होगए थे जो ताक झांक करने के बाद चुपचाप घरों का रुख़ करते हैं। ऐसे ही एक आदमी ने गर्दन ऊंची करके सुलताना की तरफ़ देखा। सुलताना मुस्कुरा दी और उस को भूल गई क्योंकि अब सामने पटड़ियों पर एक इंजन नुमूदार होगया था। सुलताना ने गौरसे उस की तरफ़ देखना शुरू किया और आहिस्ता आहिस्ता ये ख़याल इस के दिमाग़ में आया कि इंजन ने भी काला लिबास पहन रखा है। ये अजीब-ओ-ग़रीब ख़याल दिमाग़ से निकालने की ख़ातिर जब उस ने सड़क की जानिब देखा तो उसे वही आदमी बैलगाड़ी के पास खड़ा नज़र आया जिस ने उस की तरफ़ ललचाई नज़रों से देखा था। सुलताना ने हाथ से उसे इशारा किया। उस आदमी ने इधर उधर देख कर एक लतीफ़ इशारे से पूछा, किधर से आऊं, सुलताना ने उसे रास्ता बता दिया। वो आदमी थोड़ी देर खड़ा रहा मगर फिर बड़ी फुरती से ऊपर चला आया।

सुलताना ने उसे दरी पर बिठाया। जब वो बैठ गया तो उस ने सिलसिल-ए-गुफ़्तुगू शुरू करने के लिए कहा। "आप ऊपर आते डर रहे थे।" वो आदमी ये सुन कर मुस्कुराया। "तुम्हें कैसे मालूम हुआ... डरने की बात ही क्या थी?" इस पर सुलताना ने कहा। "ये मैंने इस लिए कहा कि आप देर तक वहीं खड़े रहे और फिर कुछ सोच कर इधर आए।" वो ये सुन कर फिर मुस्कुराया। "तुम्हें ग़लतफ़हमी हूई। में तुम्हारे ऊपर वाले फ़्लैट की तरफ़ देख रहा था। वहां कोई औरत खड़ी एक मर्द को ठेंगा दिखा रही थी। मुझे ये मंज़र पसंद आया। फिर बालकोनी में सबज़ बल्ब रोशन हुआ तो मैं कुछ देर के लिए ठहर गया। सबज़ रोशनी मुझे पसंद है। आँखों को बहुत अच्छी लगती है।" ये कह उस ने कमरे का जायज़ा लेना शुरू कर दिया। फिर वो उठ खड़ा हुआ। सुलताना ने पूछा। "आप जा रहे हैं?" उस आदमी ने जवाब दिया। "नहीं, मैं तुम्हारे इस मकान को देखना चाहता हूँ... चलो मुझे तमाम कमरे दिखाओ।"

सुलताना ने उस को तीनों कमरे एक एक करके दिखा दिए। उस आदमी ने बिलकुल ख़ामोशी से इन कमरों का मुआइना किया। जब वो दोनों फिर उसी कमरे में आगए जहां पहले बैठे तो उस आदमी ने कहा। "मेरा नाम शंकर है।"

सुलताना ने पहली बार ग़ौर से शंकर की तरफ़ देखा। वो मुतवस्सित क़द का मामूली शक्ल-ओ-सूरत का आदमी था मगर उस की आँखें ग़ैरमामूली तौर पर साफ़ और शफ़्फ़ाफ़ थीं। कभी कभी इन में एक अजीब क़िस्म की चमक भी पैदा होती थी। गठीला और कसरती बदन था। कनपटियों पर उस के बाल सफ़ैद होरहे थे। ख़ाकसतरी रंग की गर्म पतलून पहने था। सफ़ैद क़मीज़ थी जिस का कालर गर्दन पर से ऊपर को उठा हुआ था।

शंकर कुछ इस तरह दरी पर बैठा था कि मालूम होता था शंकर के बजाय सुलताना गाहक है। इस एहसास ने सुलताना को क़दरे परेशान कर दिया। चुनांचे उस ने शंकर से कहा। "फ़रमाईए... "

शंकर बैठा था, ये सुन कर लेट गया। "मैं क्या फ़र्माऊँ, कुछ तुम ही फ़रमाओ। बुलाया तुम्हें ने है मुझे।" जब सुलताना कुछ ना बोली तो वो उठ बैठा। "मैं समझा, लो अब मुझ से सुनो, जो कुछ तुम ने समझा, ग़लत है, मैं उन लोगों में से नहीं हूँ जो कुछ देकर जाते हैं। डाक्टरों की तरह मेरी भी फ़ीस है। मुझे जब बुलाया जाये तो फ़ीस देना ही पड़ती है।"

सुलताना ये सुन कर चकरा गई मगर इस के बावजूद उसे बेइख़्तयार हंसी आ गई।

"आप काम क्या करते हैं?"

शंकर ने जवाब दिया। "यही जो तुम लोग करते हो।"

"क्या?"

"तुम क्या करती हो?"

"मैं... मैं... मैं कुछ भी नहीं करती।"

"मैं भी कुछ नहीं करता।"

"सुलताना ने भुन्ना कर कहा। "ये तो कोई बात न हुई... आप कुछ न कुछ तो ज़रूर करते होंगे।"

शंकर ने बड़े इत्मिनान से जवाब दिया। "तुम भी कुछ न कुछ ज़रूर करती होगी।"

"झक मारती हूँ।"

"मैं भी झक मारता हूँ।"

"तो आओ दोनों झक मारें।"

"मैं हाज़िर हूँ मगर झक मारने के लिए दाम में कभी नहीं दिया करता।"

"होश की दवा करो... ये लंगर ख़ाना नहीं।"

"और मैं भी वालंटियर नहीं हूँ।"

सुलताना यहां रुक गई। उस ने पूछा। "ये वालंटियर कौन होते हैं।"

शंकर ने जवाब दिया। "उल्लु के पट्ठे।"

"मैं भी उल्लू की पट्ठी नहीं।"

"मगर वो आदमी ख़ुदाबख़्श जो तुम्हारे साथ रहता है ज़रूर उल्लु का पट्ठा है।"

"क्यों?"

"इस लिए कि वो कई दिनों से एक ऐसे ख़ुदा रसीदा फ़क़ीर के पास अपनी क़िस्मत खुलवाने की ख़ातिर जा रहा है जिस की अपनी क़िस्मत ज़ंग लगे ताले की तरह बंद है।"

ये कह कर शंकर हंसा।

इस पर सुलताना ने कहा। "तुम हिंदू हो, इसी लिए हमारे इन बुज़ुर्गों का मज़ाक़ उड़ाते हो।"

शंकर मुस्कुराया। "ऐसी जगहों पर हिंदू मुस्लिम सवाल पैदा नहीं हुआ करते। पण्डित मोलवी और मिस्टर जिनाह अगर यहां आएं तो वो भी शरीफ़ आदमी बन जाएं।"

"जाने तुम क्या ऊटपटांग बातें करते हो... बोलो रहोगे?"

"उसी शर्त पर जो पहले बता चुका हूँ।"

सुलताना उठ खड़ी हूई। "तो जाओ रस्ता पकड़ो।"

शंकर आराम से उठा। पतलून की जेबों में उस ने अपने दोनों हाथ ठूंसे और जाते हुए कहा। "मैं कभी कभी इस बाज़ार से गुज़रा करता हूँ। जब भी तुम्हें मेरी ज़रूरत हो बुला लेना... मैं बहुत काम का आदमी हूँ।"

शंकर चला गया और सुलताना काले लिबास को भूल कर देर तक उस के मुतअल्लिक़ सोचती रही। उस आदमी की बातों ने उस के दुख को बहुत हल्का कर दिया था। अगर वो अंबाले में आया होता जहां कि वो ख़ुशहाल थी तो उस ने किसी और ही रंग में उस आदमी को देखा होता और बहुत मुम्किन है कि उसे धक्के देकर बाहर निकाल दिया होता मगर यहां चूँकि वो बहुत उदास रहती थी,इस लिए शंकर की बातें उसे पसंद आईं।

शाम को जब ख़ुदाबख़्श आया तो सुलताना ने उस से पूछा। "तुम आज सारा दिन किधर ग़ायब रहे हो?"

ख़ुदाबख़्श थक कर चूर चूर होरहा था, "कहने लगा। पुराने क़िला के पास से आरहा हूँ। वहां एक बुज़ुर्ग कुछ दिनों से ठहरे हूए हैं, उन्ही के पास हर रोज़ जाता हूँ कि हमारे दिन फिर जाएं... "

"कुछ उन्हों ने तुम से कहा?"

"नहीं, अभी वो मेहरबान नहीं हूए... पर सुलताना, मैं जो उन की ख़िदमत कर रहा हूँ वो अकारत कभी नहीं जाएगी। अल्लाह का फ़ज़्ल शामिल-ए-हाल रहा तो ज़रूर वारे न्यारे हो जाऐंगे।"

सुलताना के दिमाग़ में मुहर्रम मनाने का ख़याल समाया हुआ था, ख़ुदाबख़्श से रूनी आवाज़ में कहने लगी। "सारा सारा दिन बाहर ग़ायब रहते हो... मैं यहां पिंजरे में क़ैद रहती हूँ, न कहीं जा सकती हूँ न आसकती हूँ। मुहर्रम सर पर आगया है, कुछ तुम ने इसकी भी फ़िक्र की कि मुझे काले कपड़े चाहिऐं, घर में फूटी कोड़ी तक नहीं। कन्गनीयाँ थीं सौ वो एक एक करके बिक गईं, अब तुम ही बताओ क्या होगा?... यूं फ़क़ीरों के पीछे कब तक मारे मारे फिरा करोगे। मुझे तो ऐसा दिखाई देता है कि यहां दिल्ली में ख़ुदा ने भी हम से मुँह मोड़ लिया है। मेरी सुनो तो अपना काम शुरू कर दो। कुछ तो सहारा हो ही जाएगा।"

ख़ुदाबख़्श दरी पर लेट गया और कहने लगा। "पर ये काम शुरू करने के लिए भी तो थोड़ा बहुत सरमाया चाहिए... ख़ुदा के लिए अब ऐसी दुख भरी बातें न करो। मुझ से अब बर्दाश्त नहीं हो सकतीं। मैंने सचमुच अंबाला छोड़ने में सख़्त ग़लती की, पर जो करता है अल्लाह ही करता है और हमारी बेहतरी ही के लिए करता है, क्या पता है कि कुछ देर और तकलीफें बर्दाश्त करने के बाद हम... "

सुलताना ने बात काट कर कहा। "तुम ख़ुदा के लिए कुछ करो। चोरी करो या डाका मॉरो पर मुझे एक सलवार का कपड़ा ज़रूर लादू। मेरे पास सफ़ैद बोसकी की क़मीज़ पड़ी है, उस को में काला रंगवा लूंगी। सफ़ैद नेनों का एक नया दुपट्टा भी मेरे पास मौजूद है, वही जो तुम ने मुझे दीवाली पर ला कर दिया था, ये भी क़ीज़ के साथ ही काला रंगवा लिया जाएगा। एक सिर्फ़ सलवार की कसर है, सो वह तुम किसी न किसी तरह पैदा करदो... देखो तुम्हें मेरी जान की क़सम किसी न किसी तरह ज़रूर लादो... मेरी भित्ति खाओ अगर न लाओ।"

ख़ुदाबख़्श उठ बैठा। "अब तुम ख़्वाह-मख़्वाह ज़ोर दिए चली जा रही हो... मैं कहाँ से लाऊँगा... अफ़ीम खाने के लिए तो मेरे पास पैसा नहीं।"

"कुछ भी करो मगर मुझे साढ़े चार गज़ काली साटन लादो।"

"दुआ करो कि आज रात ही अल्लाह दो तीन आदमी भेज दे।"

"लेकिन तुम कुछ नहीं करोगे... तुम अगर चाहो तो ज़रूर इतने पैसे पैदा कर सकते हो। जंग से पहले ये साटन बारह चौदह आना गज़ मिल जाती थी, अब सवा रुपय गज़ के हिसाब से मिलती है। साढ़े चार गज़ों पर कितने रुपय ख़र्च हो जाऐंगे?"

"अब तुम कहती हो तो मैं कोई हीला करूंगा।" ये कह कर ख़ुदाबख़्श उठा। "लो अब इन बातों को भूल जाओ, मैं होटल से खाना ले आऊं।"

होटल से खाना आया दोनों ने मिल कर ज़हर मार किया और सौ गए। सुबह हुई। ख़ुदाबख़्श पुराने क़िले वाले फ़क़ीर के पास चला गया और सुलताना अकेली रह गई। कुछ देर लेटी रही, कुछ देर सोई रही। इधर उधर कमरों में टहलती रही, दोपहर का खाना खाने के बाद उस ने अपना सफ़ैद नेनों का दुपट्टा और सफ़ैद बोसकी की क़मीज़ निकाली और नीचे लांड्री वाले को रंगने के लिए दे आई। कपड़े धोने के इलावा वहां रंगने का काम भी होता था। ये काम करने के बाद उस ने वापिस आकर फिल्मों की किताबें पढ़ीं जिन में उस की देखी हुई फिल्मों की कहानी और गीत छपे हूए थे। ये किताबें पढ़ते पढ़ते वो सौ गई, जब उठी तो चार बज चुके थे क्योंकि धूप आंगन में से मोरी के पास पहुंच चुकी थी। नहा धो कर फ़ारिग़ हूई तो गर्म चादर ओढ़ कर बालकोनी में आ खड़ी हूई। क़रीबन एक घंटा सुलताना बालकोनी में खड़ी रही। अब शाम होगई थी। बत्तियां रोशन होरही थीं। नीचे सड़क में रौनक के आसार नज़र आने लगे। सर्दी में थोड़ी सी शिद्दत होगई थी मगर सुलताना को ये नागवार मालूम न हूई। वो सड़क पर आते जाते टांगों और मोटरों की तरफ़ एक अर्सा से देख रही थी। दफ़अतन उसे शंकर नज़र आया। मकान के नीचे पहुंच कर उस ने गर्दन ऊंची की और सुलताना की तरफ़ देख कर मुस्कुरा दिया। सुलताना ने ग़ैर इरादी तौर पर हाथ का इशारा किया और उसे ऊपर बुला लिया।

जब शंकर ऊपर आगया तो सुलताना बहुत परेशान हूई कि इस से क्या कहे। दरअसल उस ने ऐसे ही बिला सोचे समझे उसे इशारा कर दिया था। शंकर बेहद मुतमइन था जैसे उसका अपना घर है, चुनांचे बड़ी बेतकल्लुफ़ी से पहले रोज़ की तरह वो गाव तकिया सर के नीचे रख कर लेट गया। जब सुलताना ने देर तक उस से कोई बात न की तो उस से कहा। "तुम मुझे सौ दफ़ा बुला सकती हो और सौ दफ़ा ही कह सकती हो कि चले जाओ... मैं ऐसी बातों पर कभी नाराज़ नहीं हुआ करता।"

सुलताना शश-ओ-पंज में गिरफ़्तार होगई, कहने लगी। "नहीं बैठो, तुम्हें जाने को कौन कहता है।"

शंकर इस पर मुस्कुरा दिया। "तो मेरी शर्तें तुम्हें मंज़ूर हैं।"

"कैसी शर्तें?" सुलताना ने हंस कर कहा। "क्या निकाह कर रहे हो मुझ से?"

"निकाह और शादी कैसी?... न तुम उम्र भर में किसी से निकाह करोगी ना मैं। ये रस्में हम लोगों के लिए नहीं... छोड़ो इन फुज़ूलीयात को। कोई काम की बात करो।"

"बोलो क्या बात करूं?"

"तुम औरत हो... कोई ऐसी बात शुरू करो जिस से दो घड़ी दिल बेहल जाये। इस दुनिया में सिर्फ़ दोकानदारी ही दोकानदारी नहीं, और कुछ भी है।"

सुलताना ज़हनी तौर पर अब शंकर को क़बूल कर चुकी थी। कहने लगी। "साफ़ साफ़ कहो, तुम मुझ से क्या चाहते हो।"

"जो दूसरे चाहते हैं।" शंकर उठ कर बैठ गया।

"तुम में और दूसरों में फिर फ़र्क़ ही क्या रहा।"

"तुम में और मुझ में कोई फ़र्क़ नहीं। उन में और मुझ में ज़मीन-ओ-आसमान का फ़र्क़ है। ऐसी बहुत सी बातें होती हैं जो पूछना नहीं चाहिए ख़ुद समझना चाहिए।"

सुलताना ने थोड़ी देर तक शंकर की इस बात को समझने की कोशिश की फिर कहा। "मैं समझ गई हूँ।"

"तो कहो, क्या इरादा है।"

"तुम जीते, में हारी। पर मैं कहती हूँ, आज तक किसी ने ऐसी बात क़बूल न की होगी।"

"तुम ग़लत कहती हो... इसी मुहल्ले में तुम्हें ऐसी सादा लौह औरतें भी मिल जाएंगी जो कभी यक़ीन नहीं करेंगी कि औरत ऐसी ज़िल्लत क़बूल कर सकती है जो तुम बग़ैर किसी एहसास के क़बूल करती रही हो। लेकिन उन के न यक़ीन करने के बावजूद तुम हज़ारों की तादाद में मौजूद हो... तुम्हारा नाम सुलताना है न?"

"सुलताना ही है।"

शंकर उठ खड़ा हुआ और हँसने लगा। "मेरा नाम शंकर है... ये नाम भी अजब ऊटपटांग होते हैं, चलो आओ अंदर चलें।"

शंकर और सुलताना दरी वाले कमरे में वापस आए तो दोनों हंस रहे थे, न जाने किस बात पर। जब शंकर जाने लगा तो सुलताना ने कहा। "शंकर मेरी एक बात मानोगे?"

शंकर ने जवाबन कहा। "पहले बात बताओ।"

सुलताना कुछ झेंप सी गई। "तुम कहोगे कि मैं दाम वसूल करना चाहती हूँ मगर।"

"कहो कहो... रुक क्यों गई हो।"

सुलताना ने जुर्रत से काम लेकर कहा। "बात ये है कि मुहर्रम आरहा है और मेरे पास इतने पैसे नहीं कि मैं काली सलवार बनवा सकूं... यहां के सारे दुखड़े तो तुम मुझ से सुन ही चुके हो। क़मीज़ और दुपट्टा मेरे पास मौजूद था जो मैंने आज रंगवाने के लिए दे दिया है।"

शंकर ने ये सुन कर कहा। "तुम चाहती हो कि मैं तुम्हें कुछ रुपय दे दूं जो तुम ये काली सलवार बनवा सको।"

सुलताना ने फ़ौरन ही कहा। "नहीं, मेरा मतलब ये है कि अगर हो सके तो तुम मुझे एक काली सलवार बनवा दो।"

शंकर मुस्कुराया। "मेरी जेब में तो इत्तिफ़ाक़ ही से कभी कुछ होता है, बहरहाल में कोशिश करूंगा। मुहर्रम की पहली तारीख़ को तुम्हें ये सलवार मिल जाएगी। ले बस अब ख़ुश हो गईं।" सुलताना के बुन्दों की तरफ़ देख कर शंकर ने पूछा। "क्या ये बुनदे तुम मुझे दे सकती हो?"

सुलताना ने हंस कर कहा। "तुम इन्हें क्या करोगे। चांदी के मामूली बुन्दे हैं। ज़्यादा से ज़्यादा पाँच रुपये के होंगे।"

इस पर शंकर ने कहा। "मैंने तुम से बंदे मांगे हैं। उन की क़ीमत नहीं पूछी, बोलो, देती हो।"

"ले लो। ये कह कर सुलताना ने बुन्दे उतार कर शंकर को दे दिए। इस के बाद अफ़्सोस हुआ मगर शंकर जा चुका था।"

सुलताना को क़तअन यक़ीन नहीं था कि शंकर अपना वाअदा पूरा करेगा मगर आठ रोज़ के बाद मुहर्रम की पहली तारीख़ को सुबह नौ बजे दरवाज़े पर दस्तक हूई। सुलताना ने दरवाज़ा खोला तो शंकर खड़ा था। अख़बार में लिपटी हुई चीज़ इस ने सुलताना को दी और कहा। "साटन की काली सलवार है ... देख लेना, शायद लंबी हो... अब मैं चलता हूँ।"

शंकर सलवार दे कर चला गया और कोई बात उस ने सुलताना से न की। उस की पतलून में शिकनें पड़ी हुई थीं। बाल बिखरे हूए थे। ऐसा मालूम होता था कि अभी अभी सौ कर उठा है और सीधा इधर ही चला आया है।

सुलताना ने काग़ज़ खोला। साटन की काली सलवार थी ऐसी ही जैसी कि वो अनवरी के पास देख कर आई थी। सुलताना बहुत ख़ुश हूई। बुंदों और इस सौदे का जो अफ़्सोस उसे हुआ था इस सलवार ने और शंकर की वाअदा ईफ़ाई ने दूर कर दिया।

दोपहर को वो नीचे लांड्री वाले से अपनी रंगी हुई क़मीज़ और दुपट्टा लेकर आई। तीनों काले कपड़े उस ने जब पहन लिए तो दरवाज़े पर दस्तक हूई। सुलताना ने दरवाज़ा खोला तो अनवरी अंदर दाख़िल हुई। उस ने सुलताना के तीनों कपड़ों की तरफ़ देखा और कहा। "क़मीज़ और दुपट्टा तो रंगा हुआ मालूम होता है, पर ये सलवार नई है ... कब बनवाई?"

सुलताना ने जवाब दिया। "आज ही दर्ज़ी लाया है।" ये कहते हुए उस की नज़रें अनवरी के कानों पर पड़ीं। "ये बुन्दे तुम ने कहाँ से लिए?"

अनवरी ने जवाब दिया। "आज ही मंगवाए हैं।"

इस के बाद दोनों को थोड़ी देर तक ख़ामोश रहना पड़ा।


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