धीरे-धीरे पूरे गांव में बावळे के शौर्य की चर्चा होने लगी. सब लोग पहलवान बावळे का यशोगान करने लगे. आसपास के गाँवों में पहलवानी के मुकाबलों में जीतना उसके बाएं हाथ का खेल था. अपने दोहिते की प्रशंसा सुन नानी मन ही मन बहुत खुश हुई. जीत कर आने पर नानी बावळे को दुगुना मक्खन खिलाती और बड़ा गिलास भर दूध पिलाती. अब बावळा बड़ी कक्षा में आ गया था. उसके पिताजी एवं माँ पढ़ाई के लिए उसे अपने साथ शहर ले गए. शहर में ज्यादा पहलवानी तो वह नहीं कर पाता किंतु माफ़िया गिरोह से अच्छी खासी टक्कर ले लेता था. माफ़िया गिरोह के लोग उससे डरते थे. पिताजी को जब पता चला कि वह आवारागर्दी करने लग गया है तो उन्होंने उसे डांटा और पढ़कर नौकरी पकड़ने की हिदायत दी. यहीं उसकी मुलाकात पड़ौस में रहने वाली सखी से हो गई. वह सखी से बातें करता था. सखी बावळे से प्यार कर बैठी. इन सब से अनजान या जानबूझकर बावळा उसकी बातों को ध्यान से सुनता था.
यही कारण था जयपुर में बावळे को एक दिन नाटक सिखाने हेतु बड़े स्कूल के प्राचार्य ने बुलवा भिजवाया. बावळे का छोटा बेटा भी उसी विद्यालय में पढ़ता था. नाटक सिखाने की प्रक्रिया शुरू हुई. नाटक बहुत अच्छा हो रहा था. बच्चे मन लगाकर तैयारी कर रहे थे क्योंकि नाटक, "कला उत्सव" में जाने का रास्ता खोलने वाला था. बच्चे नाटक करने में बहुत मन लगाकर अभ्यास कर रह थे क्योंकि बावळा मन लगा कर अभ्यास करवा रहा था.
एक दिन अचानक अभ्यास के दौरान बावळे के लड़के ने बुखार के कारण अभ्यास करने से इनकार कर दिया किंतु बावळा था कि अपनी जिद पर अड़ा रहा. उसे अभ्यास करने को कह रहा था. कहना ना मानने पर बावळे ने अपना अपमान समझ उसे डंडे से बहुत मारा. डंडा टूट गया पर बावळे का क्रोध शांत नहीं हुआ, जब तक कि वहां के शिक्षकों ने उसको पकड़ कर शांत नहीं किया. वहां अभ्यास करने वालों में एक मासूम लड़का था जो रहम दिल था. उसने जब बावळे को अपने ही बेटे को इतनी बुरी तरह से पीटते देखा तो वो सिहर उठा. उसकी आंखो में आंसू आ गए.