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15.09% गीता ज्ञान सागर / Chapter 8: अध्याय 4 दिव्य ज्ञान (श्लोक 1 से 20 तक)

Chapter 8: अध्याय 4 दिव्य ज्ञान (श्लोक 1 से 20 तक)

राधे कृष्णा राधे कृष्णा राधे कृष्णा राधे कृष्णा राधे कृष्णा

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श्लोक 1 

 

( सगुण भगवान का प्रभाव और कर्मयोग का विषय ) 

 

श्री भगवानुवाच 

 

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्‌।

विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्‌॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

श्री भगवान बोले- मैंने इस अविनाशी योग को सूर्य से कहा था, सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा।

 

 

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श्लोक 2

 

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।

 स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

हे परन्तप अर्जुन! इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना, किन्तु उसके बाद वह योग बहुत काल से इस पृथ्वी लोक में लुप्तप्राय हो गया।

 

 

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श्लोक 3

 

स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।

भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्‌॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है, इसलिए वही यह पुरातन योग आज मैंने तुझको कहा है क्योंकि यह बड़ा ही उत्तम रहस्य है अर्थात गुप्त रखने योग्य विषय है।

 

 

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श्लोक 4

 

अर्जुन उवाच-

 

अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।

कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

अर्जुन बोले- आपका जन्म तो अर्वाचीन-अभी हाल का है और सूर्य का जन्म बहुत पुराना है अर्थात कल्प के आदि में हो चुका था। तब मैं इस बात को कैसे समूझँ कि आप ही ने कल्प के आदि में सूर्य से यह योग कहा था?

 

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श्लोक 5

 

श्रीभगवानुवाच-

 

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।

 तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

श्री भगवान बोले- हे परंतप अर्जुन! मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं। उन सबको तू नहीं जानता, किन्तु मैं जानता हूँ।

 

 

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श्लोक 6 

 

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्‌।

प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

मैं अजन्मा और अविनाशीस्वरूप होते हुए भी तथा समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ।

 

 

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श्लोक 7 

 

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

 अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

हे भरतवंशी अर्जुन! हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ।

 

 

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श्लोक 8

 

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌।

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ।

 

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श्लोक 9

 

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः।

त्यक्तवा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

हे अर्जुन! मेरे जन्म और कर्म दिव्य अर्थात निर्मल और अलौकिक हैं- इस प्रकार जो मनुष्य तत्व से (सर्वशक्तिमान, सच्चिदानन्दन परमात्मा अज, अविनाशी और सर्वभूतों के परम गति तथा परम आश्रय हैं, वे केवल धर्म को स्थापन करने और संसार का उद्धार करने के लिए ही अपनी योगमाया से सगुणरूप होकर प्रकट होते हैं। इसलिए परमेश्वर के समान सुहृद्, प्रेमी और पतितपावन दूसरा कोई नहीं है, ऐसा समझकर जो पुरुष परमेश्वर का अनन्य प्रेम से निरन्तर चिन्तन करता हुआ आसक्तिरहित संसार में बर्तता है, वही उनको तत्व से जानता है।) जान लेता है, वह शरीर को त्याग कर फिर जन्म को प्राप्त नहीं होता, किन्तु मुझे ही प्राप्त होता है।

 

 

 

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श्लोक 10

 

वीतरागभय क्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः।

बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

 

नष्ट आसक्ति भय और क्रोध वाले , मुझसे अनन्य प्रेम करने वाले और मेरे आश्रित रहने वाले बहुत से भक्त ज्ञान रूपी तप से पवित्र होकर पहले मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके है।

 

 

:::::::::::::::::::::::::::::::राधे कृष्णा::::::::::::::::::::::::::::::::::::::

 

श्लोक 11

 

ये यथा माँ प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्‌।

 मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

हे अर्जुन! जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।

 

 

 

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श्लोक 12

 

काङ्‍क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः।

क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

इस मनुष्य लोक में कर्मों के फल को चाहने वाले लोग देवताओं का पूजन किया करते हैं क्योंकि उनको कर्मों से उत्पन्न होने वाली सिद्धि शीघ्र मिल जाती है।

 

 

 

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श्लोक 13

 

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।

तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्‌॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- इन चार वर्णों का समूह, गुण और कर्मों के विभागपूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है। इस प्रकार उस सृष्टि-रचनादि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू वास्तव में अकर्ता ही जान।

 

 

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श्लोक 14

 

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।

इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते॥

 

हिंदी अनुवाद_ 

 

कर्मों के फल में मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिए मुझे कर्म लिप्त नहीं करते- इस प्रकार जो मुझे तत्व से जान लेता है, वह भी कर्मों से नहीं बँधता।

 

 

 

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श्लोक 15

 

एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः।

कुरु कर्मैव तस्मात्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्‌॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

पहले भी मोक्ष की इच्छा वाले मनुष्यो ने इस प्रकार जानकर ही कर्म किए है। इसलिए तुम भी पुर्वजो जैसे ही सदा से किए जाने वाले कर्मों को ही करो।

 

 

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श्लोक 16

 

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।

 तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्‌॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

कर्म क्या है? और अकर्म क्या है? इस प्रकार इसका निर्णय करने में बुद्धिमान पुरुष भी मोहित हो जाते हैं। इसलिए वह कर्मतत्व मैं तुझे भलीभाँति समझाकर कहूँगा, जिसे जानकर तू अशुभ से अर्थात कर्मबंधन से मुक्त हो जाएगा।

 

 

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श्लोक 17 

 

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।।

अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए और अकर्मण का स्वरूप भी जानना चाहिए तथा विकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए क्योंकि कर्म की गति गहन है।

 

 

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श्लोक 18

 

कर्मण्य कर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।

 स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्‌॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

जो कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्यो में बुद्धिमान है और वह योगी सभी कर्मो को करने वाला है।

 

 

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श्लोक 19

 

( योगी महात्मा पुरुषों के आचरण और उनकी महिमा ) 

 

यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः।

ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पंडितं बुधाः॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

जिसके समस्त कार्य कामना और संकल्प से रहित है, ऐसे उस ज्ञानरूप अग्नि के द्वारा भस्म हुए कर्मो वाले पुरुष को ज्ञानिजन पंडित कहते है।

 

 

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श्लोक 20

 

त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः।

कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

जो पुरुष समस्त कर्मों में और उनके फल में आसक्ति का सर्वथा त्याग करके संसार के आश्रय से रहित हो गया है और परमात्मा में नित्य तृप्त है, वह कर्मों में भलीभाँति बर्तता हुआ भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता।

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

 

राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे 

 

 

 

 

 

 


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