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11.32% गीता ज्ञान सागर / Chapter 6: अध्याय 3 कर्मयोग श्लोक 1 से 20तक

Capítulo 6: अध्याय 3 कर्मयोग श्लोक 1 से 20तक

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श्लोक 1

(ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण) 

।अर्जुन उवाच

 

 ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।

 तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

अर्जुन बोले- हे जनार्दन! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर हे केशव! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं?

 

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श्लोक 2

 

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।

तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्‌॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

आप मिले हुए-से वचनों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं। इसलिए उस एक बात को निश्चित करके कहिए जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ।

 

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श्लोक 3

 

श्रीभगवानुवाच 

 

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।

 ज्ञानयोगेन साङ्‍ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्‌॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

श्रीभगवान बोले- हे निष्पाप! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा (साधन की परिपक्व अवस्था अर्थात पराकाष्ठा का नाम 'निष्ठा' है।) मेरे द्वारा पहले कही गई है। उनमें से सांख्य योगियों की निष्ठा तो ज्ञान योग से (माया से उत्पन्न हुए सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरतते हैं, ऐसे समझकर तथा मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाली सम्पूर्ण क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान से रहित होकर सर्वव्यापी सच्चिदानंदघन परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहने का नाम 'ज्ञान योग' है, इसी को 'संन्यास', 'सांख्ययोग' आदि नामों से कहा गया है।) और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से (फल और आसक्ति को त्यागकर भगवदाज्ञानुसार केवल भगवदर्थ समत्व बुद्धि से कर्म करने का नाम 'निष्काम कर्मयोग' है, इसी को 'समत्वयोग', 'बुद्धियोग', 'कर्मयोग', 'तदर्थकर्म', 'मदर्थकर्म', 'मत्कर्म' आदि नामों से कहा गया है।) होती है।

 

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श्लोक 4

 

न कर्मणामनारंभान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।

 न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

मनुष्य न तो कर्मों का आरंभ किए बिना निष्कर्मता (जिस अवस्था को प्राप्त हुए पुरुष के कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात फल उत्पन्न नहीं कर सकते, उस अवस्था का नाम 'निष्कर्मता' है।) को यानी योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानी सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है।

 

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श्लोक 5

 

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्‌।

कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है।

 

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श्लोक 6 

 

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्‌।

इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

जो मूढ़ बुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात दम्भी कहा जाता है।

 

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श्लोक 7 

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।

कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

किन्तु हे अर्जुन! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है।

 

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श्लोक 8

 

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।

शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

तू शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म कर क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा।

 

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श्लोक 9

 

( यज्ञादि कर्मों की आवश्यकता का निरूपण )

 

 यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः।

 तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मुनष्य समुदाय कर्मों से बँधता है। इसलिए हे अर्जुन! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभाँति कर्तव्य कर्म कर।

 

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श्लोक 10

 

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाचप्रजापतिः।

अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्‌॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो।

 

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श्लोक 11

 

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।

परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

तुम लोग इस यज्ञ द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगों को उन्नत करें। इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से एक-दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे।

 

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श्लोक 12

 

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।

तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुंक्ते स्तेन एव सः॥

 

।हिंदी अनुवाद_

 

यज्ञ द्वारा बढ़ाए हुए देवता तुम लोगों को बिना माँगे ही इच्छित भोग निश्चय ही देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओं द्वारा दिए हुए भोगों को जो पुरुष उनको बिना दिए स्वयं भोगता है, वह चोर ही है।

 

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श्लोक 13

 

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।

भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्‌॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो पापी लोग अपना शरीर-पोषण करने के लिए ही अन्न पकाते हैं, वे तो पाप को ही खाते हैं।

 

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श्लोक 14

 

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।

यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

सभी प्राणी अन्न उत्पन होते है, अन्न की उत्पति वर्षा से होती है, वर्षा की उत्पति यज्ञ संपन्न करने से होती है और यज्ञ की उत्पति नियत कर्म ( वेद की आज्ञानुसार कर्म ) के करने से होती है।

 

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श्लोक 15

 

 कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्‌।

तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्‌॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

नियत कर्मों का विधान वेद में निहित है और वेद को शब्द रूप से अविनाशी परमात्म से साक्षात् उत्पन्न समछना चाहिए, इसलिए सर्वव्यापी परमात्मा ब्रम्हा रूप में यज्ञ में सदा स्थिर रहता है।

 

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श्लोक 16

 

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।

अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

हे पार्थ! जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार परम्परा से प्रचलित सृष्टिचक्र के अनुकूल नहीं बरतता अर्थात अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, वह इन्द्रियों द्वारा भोगों में रमण करने वाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है।

 

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श्लोक 17

 

( ज्ञानवान और भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता ) 

 

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।

आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट हो, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है।

 

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श्लोक 18 

 

संजय उवाच:

 

 नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।

 न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थ का संबंध नहीं रहता।

 

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श्लोक 19

 

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।

असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

इसलिए तू निरन्तर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्यकर्म को भलीभाँति करता रह क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।

 

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श्लोक 20

 

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।

लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि॥

 

हिंदी अनुवाद _

 

जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्ति रहित कर्मद्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे, इसलिए तथा लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने के ही योग्य है अर्थात तुझे कर्म करना ही उचित है।

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जय श्रीकृष्ण जय श्रीकृष्ण जय श्रीकृष्ण जय श्रीकृष्ण 

 


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