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20.75% गीता ज्ञान सागर / Chapter 11: अध्याय 6 ध्यानयोग (श्लोक 1 से 25 तक)

Capítulo 11: अध्याय 6 ध्यानयोग (श्लोक 1 से 25 तक)

राधे कृष्णा राधे कृष्णा राधे कृष्णा राधे कृष्णा राधे कृष्णा राधे कृष्णा राधे कृष्णा राधे कृष्णा राधे कृष्णा राधे कृष्णा राधे कृष्णा राधे कृष्णा राधे कृष्णा राधे कृष्णा राधे कृष्णा

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श्लोक 1

श्रीभगवानुवाच

 अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।

 स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः॥

हिंदी अनुवाद_

श्री भगवान बोले- जो पुरुष कर्मफल का आश्रय न लेकर करने योग्य कर्म करता है, वह संन्यासी तथा योगी है और केवल अग्नि का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं है तथा केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं है

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श्लोक 2

यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव।

न ह्यसन्न्यस्तसङ्‍कल्पो योगी भवति कश्चन॥

हिंदी अनुवाद_

हे अर्जुन! जिसको सन्यास कहते है, उसी को तुम योग जानो क्योंकि संकल्पो का त्याग न करने वाला कोई भी पुरुष योगी नही होता।

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श्लोक 3

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।

योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते॥

हिंदी अनुवाद_

योग में आरूढ़ होने की इच्छा वाले मननशील पुरुष के लिए योग की प्राप्ति में निष्काम भाव से कर्म करना ही हेतु कहा जाता है और योगारूढ़ हो जाने पर उस योगारूढ़ पुरुष का जो सर्वसंकल्पों का अभाव है, वही कल्याण में हेतु कहा जाता है।

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श्लोक 4 

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।

सर्वसङ्‍कल्पसन्न्यासी योगारूढ़स्तदोच्यते॥

हिंदी अनुवाद_

जिस काल में न तो इन्द्रियों के भोगों में और न कर्मों में ही आसक्त होता है, उस काल में सभी संकल्पो के त्यागी पुरुष योग में स्थिर  कहा जाता है।

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श्लोक 5

उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्‌।

आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥

हिंदी अनुवाद_

मनुष्य को अपने द्वारा अपना उद्धार करना चाहिए और अपना अधः पतन नही करना चाहिए। क्योंकि आत्मा ही आत्मा का मित्र है और आत्मा (मनुष्य स्वयं) ही आत्मा का (अपना) शत्रु है।

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श्लोक 6

बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।

अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्‌॥

हिंदी अनुवाद_

जिस जीवात्मा द्वारा मन और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है, उस जीवात्मा का तो वह आप ही मित्र है और जिसके द्वारा मन तथा इन्द्रियों सहित शरीर नहीं जीता गया है, उसके लिए वह आप ही शत्रु के सदृश शत्रुता में बर्तता है।

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श्लोक 7

जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।

शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः॥

हिंदी अनुवाद_

सरदी-गरमी और सुख-दुःखादि में तथा मान और अपमान में जिसके अन्तःकरण की वृत्तियाँ भलीभाँति शांत हैं, ऐसे स्वाधीन आत्मावाले पुरुष के ज्ञान में सच्चिदानन्दघन परमात्मा सम्यक्‌ प्रकार से स्थित है अर्थात उसके ज्ञान में परमात्मा के सिवा अन्य कुछ है ही नहीं।

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श्लोक 8

ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः।

युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकांचनः॥

हिंदी अनुवाद_

जिसका अन्तःकरण ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है, जिसकी स्थिति विकाररहित है, जिसकी इन्द्रियाँ भलीभाँति जीती हुई हैं और जिसके लिए मिट्टी, पत्थर और सुवर्ण समान हैं, वह योगी युक्त अर्थात भगवत्प्राप्त है, ऐसे कहा जाता है।

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श्लोक 9

सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु।

साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते॥

हिंदी अनुवाद_

जो पुरुष सुह्रद, मित्र , शत्रु, उदासीन, मध्यस्थ, व्देषी और बांधवों में तथा धर्मात्माओ में और पापियों में भी समान भाव वाला है, वह श्रेष्ठ है।

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श्लोक 10

योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः।

एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः॥

हिंदी अनुवाद_

मन और इन्द्रियों सहित शरीर को वश में रखने वाला, आशारहित और संग्रहरहित योगी अकेला ही एकांत स्थान में स्थित होकर आत्मा को निरंतर परमात्मा में लगाए

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श्लोक 11

शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः।

नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्‌॥

हिंदी अनुवाद_

पवित्र स्थान में, क्रमशः कुशा, मृगचर्म और वस्त्र से बने स्थिर आसन की स्थापना कर, जो न अधिक ऊंचा है और न अधिक नीचा।

::::::::::::::::::::::::राधे कृष्णा::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::

श्लोक 12

तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः।

उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये॥

हिंदी अनुवाद_

वहां मन को एकाग्र करके, चित्त और इंद्रियो की क्रियाओं को वश में रखते हुए आसन पर बैठे और अंतःकरण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करे।

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श्लोक 13

समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः।

सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्‌॥

हिंदी अनुवाद_

शरीर, सिर और गले को समान एवं अचल धारण करके और स्थिर होकर, अपनी नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमाकर, अन्य दिशाओं को न देखता हुआ।

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श्लोक 14

प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।

मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः॥

हिंदी अनुवाद_

ब्रह्मचारी के व्रत में स्थित, भयरहित तथा भलीभाँति शांत अन्तःकरण वाला सावधान योगी मन को रोककर मुझमें चित्तवाला और मेरे परायण होकर स्थित होए।

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श्लोक 15

युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः।

 शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति॥

हिंदी अनुवाद_

वश में किए हुए मनवाला योगी इस प्रकार आत्मा को निरंतर मुझ परमेश्वर के स्वरूप में लगाता हुआ मुझमें रहने वाली परमानन्द की पराकाष्ठारूप शान्ति को प्राप्त होता है।

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श्लोक 16

नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः।

न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन॥

हिंदी अनुवाद_

हे अर्जुन! यह योग न तो बहुत खाने वाले का, न बिलकुल न खाने वाले का, न बहुत शयन करने के स्वभाव वाले का और न सदा जागने वाले का ही सिद्ध होता है।

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श्लोक 17

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा॥

हिंदी अनुवाद_

दुःखों का नाश करने वाला योग तो यथायोग्य आहार-विहार करने वाले का, कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का और यथायोग्य सोने तथा जागने वाले का ही सिद्ध होता है।

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श्लोक 18

यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते।

निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा॥

हिंदी अनुवाद_

अत्यन्त वश में किया हुआ चित्त जिस काल में परमात्मा में ही भलीभाँति स्थित हो जाता है, उस काल में सम्पूर्ण भोगों से स्पृहारहित पुरुष योगयुक्त है, ऐसा कहा जाता है।

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श्लोक 19

यथा दीपो निवातस्थो नेंगते सोपमा स्मृता।

योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः॥

हिंदी अनुवाद_

जिस प्रकार वायुरहित स्थान में स्थित दीपक चलायमान नहीं होता, वैसी ही उपमा परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के जीते हुए चित्त की कही गई है।

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श्लोक 20

यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।

यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति॥

हिंदी अनुवाद_

योग के अभ्यास से निरुद्ध चित्त जिस अवस्था में उपराम हो जाता है और जिस अवस्था में परमात्मा के ध्यान से शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा परमात्मा को साक्षात करता हुआ सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही सन्तुष्ट रहता है।

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श्लोक 21

सुखमात्यन्तिकं यत्तद्‍बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्‌।

 वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः॥

हिंदी अनुवाद_

इन्द्रियों से अतीत, केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा ग्रहण करने योग्य जो अनन्त आनन्द है, उसको जिस अवस्था में अनुभव करता है, और जिस अवस्था में स्थित यह योगी परमात्मा के स्वरूप से विचलित होता ही नहीं।

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श्लोक 22

यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।

यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते॥

हिंदी अनुवाद_

परमात्मा की प्राप्ति रूप जिस लाभ को प्राप्त होकर उसे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और परमात्मा प्राप्ति रूप जिस अवस्था में स्थित योगी बड़े भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता।

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श्लोक 23

तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्।

 स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा॥

हिंदी अनुवाद_

जो दुःखरूप संसार के संयोग से रहित है तथा जिसका नाम योग है, उसको जानना चाहिए। वह योग न उकताए हुए अर्थात धैर्य और उत्साहयुक्त चित्त से निश्चयपूर्वक करना कर्तव्य है।

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श्लोक 24

सङ्‍कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः।

मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः॥

हिंदी अनुवाद_

संकल्प से उत्पन्न होने वाली सम्पूर्ण कामनाओं को निःशेष रूप से त्यागकर और मन द्वारा इन्द्रियों के समुदाय को सभी ओर से भलीभाँति रोककर।

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श्लोक 25

शनैः शनैरुपरमेद्‍बुद्धया धृतिगृहीतया।

आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्‌॥

हिंदी अनुवाद_

धीरे धीरे बुद्धि को शांत करते हुए, धैर्य पूर्वक मन को आत्मा में स्थिर करते हुए कुछ भी विचार न करे।

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राधे श्याम राधे श्याम राधे श्याम राधे श्याम राधे श्याम राधे श्याम राधे श्याम राधे श्याम राधे श्याम राधे श्याम राधे श्याम राधे श्याम राधे श्याम राधे श्याम राधे श्याम राधे श्याम राधे 


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