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18.18% एक संन्यासी ऐसा भी / Chapter 1: भाग 1: बचपन और परिवार

章 1: भाग 1: बचपन और परिवार

धुंधलके से भरी सुबह थी। गाँव के कच्चे रास्तों पर ओस की बूँदें धरती को गीला कर रही थीं। नीले आसमान के नीचे हरियाली के बीच बसा यह गाँव, साधारण जीवन का प्रतीक था। पेड़ों के झुरमुटों के बीच से गुजरते हुए महादेव ने अपने घर की ओर देखा। मिट्टी की दीवारें और छप्पर की छत वाला वह घर, बाहर से तो साधारण दिखता था, लेकिन अंदर से महादेव के लिए यह घर एक गहरी उदासी का प्रतीक था। वह अक्सर इस घर को देखता, लेकिन उसे कभी यह घर जैसा महसूस नहीं हुआ।

महादेव का जन्म इसी गाँव में हुआ था। उसके पिता का देहांत तब हो गया था जब वह बहुत छोटा था। उसकी माँ ने उसे पाला-पोसा, और महादेव को अपने जीवन की सबसे बड़ी जिम्मेदारी माना। गाँव के अन्य बच्चों की तरह महादेव भी खेतों में दौड़ता, नदी किनारे खेलता, लेकिन उसके मन में कुछ और ही चल रहा था। उसे दुनिया की भौतिकता में कोई रस नहीं था। उसकी माँ, जो उसे संसारिक जीवन के नियम सिखाने की कोशिश करती थीं, अक्सर उसकी उदासीनता को देखकर चिंतित हो जातीं।

माँ ने हमेशा चाहा कि महादेव एक सामान्य जीवन जिए। उसे खेती करना सिखाया, गाय-भैंसों का ख्याल रखना सिखाया, लेकिन महादेव के लिए यह सब बाहरी संसार था। उसके भीतर एक अलग ही संसार था, जिसमें वह सदा खोया रहता। वह अक्सर सोचता, "यह जीवन इतना छोटा और क्षणिक क्यों है? क्या इसके परे भी कुछ है?"

गाँव के बड़े-बूढ़े लोग महादेव के बारे में बातें करते, "यह लड़का साधारण नहीं है। यह तो किसी गहरे सत्य की खोज में है।" लेकिन महादेव को उनकी बातों का कोई असर नहीं होता। वह खुद को हर दिन एक नई उलझन में पाता। उसे हमेशा ऐसा लगता जैसे वह इस दुनिया में होकर भी इस दुनिया का नहीं है।

उसकी माँ उसे कई बार मंदिर ले जातीं, गाँव के साधुओं से मिलवातीं, लेकिन महादेव का मन कभी स्थिर नहीं हो पाता। उसे ऐसा लगता कि यह सब उसकी तलाश का हिस्सा नहीं है। उसकी माँ अक्सर उससे कहतीं, "महादेव, जीवन में कुछ करना है तो ध्यान लगाना सीखो। ईश्वर की भक्ति करो।" महादेव उनकी बात सुनता, परंतु वह जानता था कि उसकी भक्ति और ध्यान कुछ अलग है। वह सिर्फ मंदिर में बैठकर भगवान के सामने हाथ जोड़ने तक सीमित नहीं था; वह उस सत्य की खोज में था जिसे किसी ने देखा नहीं, महसूस किया नहीं।

एक दिन गाँव में एक वृद्ध सन्यासी, शिवानन्द आए। उनकी लंबी सफेद दाढ़ी, चमकती आँखें, और शांत मुद्रा ने महादेव को आकर्षित किया। वह शिवानन्द के पास गया और उनसे पूछा, "बाबा, इस जीवन का सत्य क्या है? मैं कुछ ढूँढ़ रहा हूँ, पर समझ नहीं पा रहा कि वह क्या है।"

शिवानन्द मुस्कुराए और बोले, "बेटा, सत्य न तो बाहर है और न ही किसी मंदिर में। वह तुम्हारे भीतर है। उसे ढूँढ़ने के लिए तुम्हें अपने भीतर की यात्रा करनी होगी। जब तुम खुद को जानोगे, तभी तुम सत्य को समझ पाओगे।" महादेव ने यह सुना और उसकी आँखों में एक नई चमक आ गई। उसे लगा कि वह अपने मार्ग के एक कदम और करीब आ गया है।

लेकिन यह यात्रा आसान नहीं थी। महादेव का घर, उसकी माँ, और समाज की जिम्मेदारियाँ उसे बाँध रही थीं। वह चाहकर भी इस यात्रा पर तुरंत नहीं जा सकता था। वह जानता था कि उसे अपने कर्तव्यों को निभाना होगा, लेकिन उसके भीतर की बेचैनी उसे लगातार खींच रही थी।

महादेव का यह आंतरिक संघर्ष उसकी माँ के लिए एक पहेली बना हुआ था। वे उसे देखतीं, उसके उदास चेहरे को पढ़ने की कोशिश करतीं, पर समझ नहीं पातीं कि उनके बेटे के मन में आखिर क्या चल रहा है।


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