एक दिन मैं सुबह जल्दी सो कर उठा । मेरी सामने वाली दीवार पर एक घड़ी लगी थी। घड़ी बहुत साल पुरानी थी मगर पुरानी होने के बाद भी हमें ठीक समय पर नींद से उठा दिया करती है । जिसकी वो तीन सूइयां घूम रही थी। जो मुझसे बार-बार कह रही थी , उठ जाओ नहीं तो लेट हो जाओगे । वैसे तो मैंने कभी घड़ी पर इतना ध्यान नहीं दिया था मगर उस दिन कि सुबह में कुछ अलग ही बात थी । सुबह उन सूरज की किरणों में एक नई ही ऊर्जा थी । वैसे तो मैं कभी इतनी जल्दी नहीं उठता हुं कि सूरज को उगता हुआ देखूं , मगर उसदिन बार- बार घड़ी कि सूइयां मुझे मेरी मेहनत के फल कि ओर इशारा कर रही थी । मैं उठा और उठकर तैयार होने लगा । मुझे तो वहां जाना था , जहां मेरा इंतजार किया जा रहा था । मैं तैयार होकर घर से निकलने ही वाला रहता हूं कि , मेरी मां कहती हैं " बेटा लिफ़ाफा लिए हो " । मैं जल्द बाजी और खुशी में लिफ़ाफा लेना ही भूल गया था । मैं मां को कहता हूं " अच्छा हुआ मां आपने मुझे याद दिलाया नहीं तो मैं ऐसे ही चला गया रहता और वहां पहुंचकर मायूस होकर मुझे घर वापस आना पड़ता " । मेरी मां को किसी बात का श्रेय मिल जाए तो मां बहुत खुश हो जाया करती हैं । इसलिए मैंने इस बात का श्रेय भी मां को दे दिया । अब मुझे घर से निमंत्रण किये गये स्थान पर जाना था । जाने से पहले मैं हमेशा की तरह मां का आशीर्वाद लेना कभी नहीं भूलता था । मेरी मां के सिर पर एक बार हाथ फेरने और मेरे गालों को प्यार से सहलाने में पता नहीं एक अजीब सी ही शक्ति थी । ऐसा लगता था जैसे मैं कुछ किये बिना ही विजयी हो गया हूं । उसके बाद मैं अपने पिताजी का हाथ पकड़कर अपने सम्मान समारोह कि ओर घर से चल दिया ।
उस दिन वे बहुत खुश थे क्योंकि मैं अपनी संस्कृति के विषय में परिक्षा देकर पूरे जिले में सेकेंड हुआ था । इसलिए मुझे टैक्सी से लेकर जाना चाहते थे, मेरे सम्मान समारोह में । सामने से एक टैक्सी आ रही थी । पिताजी ने हाथ दिखाकर टैक्सी को रूकने का इशारा किया । टैक्सी हमारे सामने आकर रुकी , "क्यों भाई साहब कहां जाना है " , टैक्सी ड्राइवर पिताजी से पूछता है । " भाई साहब हावड़ा स्टेशन जाना है , आप क्या हावड़ा स्टेशन जाइएगा " पिताजी टैक्सी ड्राइवर से पूछते हैं । " जी जाऊंगा , सौ रुपए लगेंगे ", सौ रुपए ! ये तो बहुत ज्यादा है , आप बहुत ज्यादा भाड़ा बोल रहे हैं मुझे । टैक्सी ड्राइवर पिताजी की बातें सुनकर कहता है " जी नहीं , आपको चलना है तो बैठिए नहीं तो मुझे और भी अन्य पैसेंजरों को भी स्टेशन पहुंचाना है । लेकिन जब टैक्सी ड्राइवर उन्हें भाड़ा अधिक बताते हैं तो वो अपनी जेब टटोलने लगते हैं और फिर टैक्सी को चले जाने के लिए कहते हैं ।
मेरी उम्र तो ज्यादा नहीं थी , मैं महज तेरह वर्ष का था । पर हां मेरे घर में सब मुझे समझदार बच्चा समझते थे , शायद यही एक वजह थी कि मैं पिताजी कि हाथ को खींचकर कहता हूं " पापा मुझे टैक्सी से नहीं जाना वो देखिए न बस आ रही है , हमलोग बस से चले जाएंगे " । पिताजी मेरी बातों को सुनकर मेरी तरफ प्यार भरी नजरों से देखते हैं और मेरे सिर पर धीरे से अपने हाथों को फेरते हैं । उसके बाद आ रही बस पर हम सवार हो जाते हैं । मैं तो छोटा था । मेरी हाथ ऊपर वाले बस की रॉड तक नहीं पहुंच पा रही थी । पिताजी एक व्यक्ति को थोड़ा सा हटने के लिए बोलते हैं । उस आदमी के थोड़ी सी साइड देते ही पिताजी मेरी हाथों को पकड़ कर सीट पर बनी रॉड से पकड़ा देते हैं । मैं उन्मुक्त होकर खिड़की से बाहर देखता रहता हूं । रास्ते में मुझे बस से ही एक सड़क को दिखाकर कहते हैं " बेटा इसी सड़क पर हमारी दुकान पड़ती है "। " क्या पिताजी इसी सड़क पर हमारी दुकान है ! " , "हां बेटा इसी सड़क पर" ।
हां ये पिताजी कि वही किराने की दुकान थी , जो नाममात्र कि थी । पर हम-सब घर वालों कि पेट भरने के लिए काफी थी । जहां पिताजी को हर रोज़ जाना रहता था क्योंकि किराने की दुकान चलाने वाले को कभी किसी भी दिन छुट्टी नहीं होती है । जिसे आज मेरी खुशी में शामिल होने के लिए पिताजी ने बंद रखा था ।
इस तरह कुछ रास्ता कट जाने पर बस थोड़ी और भीड़ होने लगती है । अब मुझे खड़े रहने में परेशानियां आने लगती है । लेकिन फिर भी मैं खड़ा ही रहता हूं । तभी एक सज्जन का गंतव्य स्थान आ जाता है । मैं उनकी सीट पर बैठ जाता हूं । मेरे पिताजी मुझसे सटकर मेरी सीट के सामने खड़े हो जाते हैं । तकरीबन आधे घंटे के बाद हम हावड़ा पहुंचते हैं । मैं बस से उतरते ही हावड़ा ब्रिज को देखते ही पिताजी को कहने लगता हूं " पिताजी देखिए हावड़ा ब्रिज " । पिताजी मुझसे कहते हैं " हां बेटा ये हावड़ा ब्रिज है , जो तुमने अपनी किताब में देखी है " । मैं खुश हो जाता हूं क्योंकि मैंने कभी भी इतनी नजदीक से हावड़ा ब्रिज नहीं देखा था । उसके बाद मैं अपने पिताजी के साथ हावड़ा के रेलवे स्टेशन में प्रवेश करता हूं क्योंकि हमारा गंतव्य स्थान अब तक नहीं आया था । अभी तो हमें और थोड़ी दूर जाना था । मैं पिताजी से पुछता हुं कि " अभी हमें और कितनी दूर जाना है ? " पिताजी कहते हैं " बेटा बस हमें और थोड़ी ही दूर जाना है " । उसके बाद एक हरे रंग की लोकल ट्रेन आती है , हम उस पर सवार हो जाते हैं । ट्रेन कि हॉर्न बजती है और ट्रेन चलना शुरू करती है । तभी एक पापड़ बेचने वाला चलती हुई ट्रेन पर चढ़ता है । वह हमारी ओर आता है । मैं पापड़ वाले को देखकर खुश हो जाता हूं क्योंकि मुझे पापड़ खाना अच्छा लगता था । मैं पिताजी को पापड़ खरीदने के लिए कहते हैं । पिताजी फिर से अपनी जेब टटोलते हैं और कहते हैं बेटा ट्रेन से उतरकर खरीद दुंगा । मैं चुप हो जाता हूं । थोड़ी ही देर में लिलूआ स्टेशन आ जाती है । हम ट्रेन से उतरते हैं । हम स्टेशन से बाहर निकल आते हैं । स्टेशन के बाहर ही एक रिक्शा स्टैंड था । जहां पिताजी मेरे निमंत्रण पत्र पर लिखी पते के बारे में पूछते हैं । एक रिक्शा चालक उन्हें कहता है " आप रिक्शे से जाइएगा तो चालीस रुपए पड़ेगा । पिताजी थोड़े आश्चर्य से कहते हैं " क्या चालीस रुपए ? " पिताजी की बात सुनते ही रिक्शावाला समझ जाता है कि हम रिक्शे से जाने वाले नहीं है । इसलिए वह हमें पैदल मार्ग बताने लगता हैं । जो वहां से बीस मिनट की दूरी पर था ।
मैं पिताजी के साथ तकरीबन बीस मिनट तक पैदल चलने के बाद एक भवन नुमा इमारत तक जा पहुंचता हूं । जिसकी भव्यता बाहर से देखते ही समझ में आ गई थी कि यही वह स्थान हैं जहां हमें पहुंचना था । पिताजी गेट पर खड़े गार्ड को मेरा निमंत्रण पत्र दिखाते हैं । गार्ड निमंत्रण पत्र को एक नज़र देखकर हमें एक ओर इशारा करते हुए कहता हैं " आप लोग वहां जाकर बैठिए " । हम लोग एक हॉल के भीतर प्रवेश करते हैं । वह हॉल अग्रसेन स्कूल का था । जहां चारों तरफ कैमरे लगे हुए थे । सामने एक बड़ी सी स्टेज बनी हुई थी । कुर्सियां दो भागों में विभक्त कर सजाई गई थी । एक तरफ अभिभावकों कि बैठने की जगह थी और दूसरी तरफ प्रतिभागियों की । मुझे प्रतिभागियों कि तरफ़ वाली कुर्सी कि कतार पर सबसे सामने बैठने को कहा गया और पिताजी को अभिवावकों की तरफ़ वाली कुर्सी की तरफ । मैं केवल बार-बार अपनी नजरें घूमाकर चारों ओर देख रहा था ।
एक स्कूल क्या इतना खूबसूरत हो सकता है ? मेरे मन यह प्रश्न बार-बार उठ रहा था । स्कूल के हॉल में ए्.सी. भी लगी हुई थी । बिल्डिंग के प्रांगण में खेल के मैदान के साथ-साथ एक सुंदर सा फब्बारा भी था । मैं तो सरकारी स्कूल में पढ़ रहा था । हमारे स्कूल में ऐसी एक भी ऐसी सुविधा उपलब्ध नहीं थी । इसलिए मुझे ये चीजें नई और सुंदर लग रही थी। फिर भी मैं चुपचाप ही बैठा था क्योंकि मैं यहां पर कुछ अटपटा सा व्यवहार नहीं करना चाहता था । थोड़ी ही देर में एक व्यक्ति मेरे पास आता है और कहता है " सर स्नैक्स लिजियेगा " । मैं उसके ट्रे से कुछ स्नैक्स उठा लेता हूं । पर मुझे यह बात पहली बार पता चलती है कि कुछ तेल में तली हुई पकौड़ियों को भी स्नैक्स कहा जाता है । अब तक मैं केवल नमकीन बिस्किट्स को ही स्नैक्स के रूप में जानता था ।
अब प्रोग्राम का शुभारंभ होता है । हॉल लोगों से भर जाती है । प्रोग्राम का शुभारंभ एक प्रदीप जलाने के बाद , राष्ट्रीय गान के साथ किया जाता है । उसके बाद कुछ लोक गीत गाई जाती है । उसके बाद कुछ डांस का प्रोग्राम चलता है । ऐसा प्रोग्राम मैंने आज से पहले कभी नहीं देखा था । इससे पहले मैं अपने पाड़ा में कई बार डांस का प्रोग्राम देख चुका था । लेकिन उन प्रोग्रामों में ऐसी बात नहीं थी और हो भी क्यों न इस सम्मान समारोह में हमें छोड़कर सभी ऊंचे तबके के लोग बैठे थे । उनके लिए यह आम बात थी । पर मेरे लिए यह खास थी । ये अक्सर ही हुआ करती है कि जो अमीरों के लिए कुछ नहीं होता है वह गरीब के लिए खास होता है । इसलिए कुछ न होते हुए भी बस छोटी-छोटी बातों से गरीब हमेशा खुश रहता हैं और अमीर तबका दुनिया भर कि व्यर्थ की चीजों में खुशियां तलाशने में लगा रहता है । यही बात थी कि मैं इतना खुश था और बाकी एक-दो को छोड़कर सभी लोग अचेत सा प्रोग्राम देख रहे थे । अब मंच पर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के एक अध्यापक भाषण देने के लिए आते हैं । उनका नाम तो मुझे याद नहीं पर उनकी बातें मुझे आज भी याद है । उन्होंने कहा था " आप क्या हो ये आप खुद नहीं जानते हैं । बस इतना हमेशा याद रखना कि हमें इंसान बनना है " । मुझे उस समय उनकी बातें कुछ अटपटी सी लगी थी क्योंकि मैं केवल तेरह वर्ष का था । मेरी चेतना इतनी प्रबल नहीं थी कि मैं उनके शब्दों के बोल को समझ सकूं । लेकिन उनकी बातें मुझे आज भी याद है । उनका भाषण खत्म होते ही प्राइज देने कि प्रक्रिया शुरू की जाती है ।
पहले थर्ड प्राइज की घोषणा की जाती है । उसके बाद मेरा नम्बर आता है । मुझे पहले ही एक लेडी मंच के सीढियों के सामने ले जाकर खड़ी कर देती है । मंच से मेरा नाम पुकारा जाता है । मैं डरता हुआ उन सीढ़ियों से मंच पर चढ़ता हुं । उसके बाद मेरे पैरों में न जाने कहां से इतनी कंपन उत्पन्न हो गई थी । उस कंपन भरे पैरों से मैं मंच पर चलता हूं और अपना प्राइज ग्रहण करता हूं ।
ये मेरे जीवन में पहली एक ऐसी घड़ी आई थी जब मेरे पिताजी मुझे मंच पर प्राइज ग्रहण करते हुए देखकर जोड़-जोड़ तालियां बजा रहे थे और अपना सीना ताने अपने अगल-बगल के लोगों को ज़ोर-सोर से कह रहे थे । ये मेरा बेटा है । मैं बहुत खुश था मगर डरा हुआ था क्योंकि मैंने पहली बार मंच पर चढ़ कर लोगों कि भीड़ को देखकर डरने का एहसास किया था । मैं मंच से नीचे उतरा उसके बाद पिताजी के पास जा पहुंचा । उसके बाद फर्स्ट प्राइज की घोषणा की गई तब मुझे एहसास हुआ कि मुझे अब भी बहुत मेहनत करनी है । मुझे सर्टिफिकेट के साथ ही एक लिफाफा भी मिला था । मैं लिफाफे को खोलता हूं । उसमें तीन सौ रुपए रहते हैं । मैं लिफाफे को पिताजी को दे देता हूं । कुछ ही देर में प्रोग्राम खत्म हो जाती है। हम गेट से बाहर निकलते हैं । पिताजी को मैं रिक्से से चलने के लिए कहता हूं क्योंकि मेरे पास पैसे आ चुके थे । हम रिक्से से जा सकते थे । लेकिन पिताजी मुझसे कहते हैं " नहीं बेटा , हम जैसे आये थे वैसे ही घर वापस जाएंगे । ये पैसे सिर्फ पैसे नहीं हैं ये इनाम है तुम्हारी मेहनत का , इसे कभी खर्च न करना " । मुझे उस समय कुछ अटपटी सी लगी लेकिन मैं मान गया । उसके बाद हम वहां से घर वापस लौट आते हैं । पिताजी मेरे उस इनाम के लिफाफे को घर आते ही बक्से में रख देते हैं ।
आज कई वर्ष बाद जब मैंने उस बक्से को खोला तो मेरी आंखें नम हो गई । उस बक्से में आज भी वो तीन सौ रुपए सलामती से रखी हुई हैं । जहां उस लिफाफे से मेरा बचपन आज भी निकलकर मेरे आंखों के सामने उभर आया ।