" गणित " , कई अंकों का खेल , अनन्त से शुरू और अनन्त पर खत्म , जिस विषय का नाम सुनते ही छात्रों के माथे पर कई लकीरें उभर आती है , जिसके बिना कोई भी गणना नहीं कि जा सकती है , वह विषय पढ़ने वाला व्यक्ति गणितज्ञ कहलाता है । लेकिन इस विषय कि सबसे अच्छी बात यह है कि यह अपने अच्छाई को जोड़ कर , बुराई को घटाकर ,अपनी गुणवत्ता का आंकलन गुणा करके बताता है। लेकिन इसमें एक और चिन्ह है जो गुणा के विरुद्ध भी जाने का साहस रखता है , वह है विभाजन , यानी कि भाग । ऐसे ही हमारा जीवन भी है ।
मैं उसके बारे में ज्यादा तो नहीं जानता पर उसे मैंने केवल गंगा के घाट पर बैठा हुआ देखा था । बाल बड़े-बड़े जो सड़क के धूल में सनकर जटा का रूप धारण कर लिया था , कपड़े फटे हुए , चेहरे पर भी सड़क के धूल ने एक अलग ही बसेरा बनाए हुए था । जिसकी उम्र तीस कि आसपास होगी ।जो गंगा के किनारे सड़क के फुटपाथ पर बैठा था । मैं और मेरे साथी मित्र सूरज , उसदिन गंगा के घाट पर एक संस्था कि तरफ से जरूरत मंदों को खाना देने के लिए गए थे। हम जब उसके पास गए तो देखा कि वह एक कलम से कागज़ के टुकड़े पर कुछ लिख रहा था। हमने देखा तो हमें आश्चर्य हुआ कि कलम तो चल ही नहीं रही है , तो फिर वो कागज़ पर क्या लिखने कि कोशिश कर रहे हैं। यह देख मेरे एक दोस्त से रहा नहीं गया उसने पूछ ही लिया कि " बाबा, आप क्या लिख रहें हैं ? " बाबा ने एक नज़र हम सब कि तरफ़ देखा और कहा -" बेटा ..., मैथ्स का सम्स सोल्भ कर रहा हूं ।" यह सुनकर हम सब हैरान हो गए ।
एक गंगा के किनारे रहने वाला व्यक्ति , जिसका दिमागी हालत ठीक नहीं है , वह व्यक्ति गणित के सवाल बनाने कि कोशिश कर रहा है । उसकी बोलने कि अंदाज से हमें बस इतना ही समझ आया कि जब वह कॉलेज में पढ़ता होगा तो उसे जरूर किसी गणित कि नम्बर ने मात दी होगी । जिसके प्रभाव से उस गणितज्ञ कि दिमाग में भी नम्बरों कि गड़बड़ी हो गई । जिसे सुधारने का प्रयास वह आज भी कर रहा है । ये समाज भी अजीब हैं , जहां लोगों का मन भी नम्बरों में उलझा रहता है । जो सफल हुआ उसे सिर पर बैठाते हैं और असफल होने वाले को सड़क के किनारे फेंक कर चले जाते हैं ।
पढ़ाई करने के लिए दबाव कुछ पर इतना बन जाता है कि वह अपने परिवार से भी कुछ कह ही नहीं पाता है । उनके क़िस्मत में दोस्त के नाम पर भी सौदागर ही मिलते हैं । जो उनका पढ़ाकू बोलकर मजाक बना दिया करते हैं । उससे कभी अपने दुसरे दोस्तों कि तरह मिलते ही नहीं है और जब वह टूटता भी है तो उसे सहारा देने वाला परिवार भी उसे अकेला ही छोड़ देता है । इस गणितज्ञ कि तरह ही किसी सड़क के किनारे कहीं ठोकरें खाने को ।
जब मेरे दोस्त ने उनसे पूछा " बाबा , आप खाना खायेंगे ।" वो बहुत ही प्यार से कहते हैं " हां , खाऊंगा " । वो अपनी फटी झोली से एक थाली निकालता हूआ कहता है " इस थाली में दे दीजिए , ये थाली मेरी मां ने दी थी ।" अब भी उसके मन में अपने परिवार के लिए प्यार जिंदा था । हम चार पड़ाठे और सब्जी उनकी थाली में दे देते हैं । लेकिन वो खाने को अपने कागज़ के टुकड़े के बगल में रख देते हैं और फिर कलम से अपने सवालों के उत्तर ढ़ूंढ़ने में लग जाता है । जो सवाल भी उसके अपनो ने ही उसके मन में उत्पन्न किया था ।
लेकिन हम भी कहां चुप रहने वाले थे । हमारे एक साथी ने उनके सामने कह ही दिया " बाबा , आप अब इस कागज़ और कलम को रखिए और पहले खाना खा लिजिए । उनके आंखों में नमी दिख रही थी , मानों सालों गुज़र गए हो उनके कानों को सुने हुए कि पहले खाना खा लिजिए । ये एक अजीब सी भाव थी हम सब में कि जब तक हमारा दिया हुआ खाने का एक निवाला कोई अपनी मुंह में रख न लें तब तक हमें सेवा का भाव महसूस ही नहीं होता था । उसके बाद वो खाने के निवाले को मुंह में रखते है और हम अपनी अगली मंजिल कि तरफ़ बढ़ जाते हैं ।
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