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8.33% tumhari duriyan / Chapter 1: 1.
tumhari duriyan tumhari duriyan original

tumhari duriyan

作者: Ranjanshaw1998

© WebNovel

章 1: 1.

1.

एक चुपचाप और बेहद ही शांत स्वभाव की लड़की बोकारो से कलकत्ता जाकर पढ़ना चाहती थी । वह अपनी माध्यमिक की परीक्षा पास कर चुकी थी । उसके नम्बर माध्यमिक में बहुत अच्छे आये थे । वह बेहद खुश थी। उसके पिताजी सरकारी नौकरी करते थे और मां हाउस वाइफ थीं। वह अपनी कलकत्ता जाकर पढ़ने की इच्छा , अपनी मां को बताती है। पर हर मां की तरह ही प्रेरणा कि मां भी अपने बच्चे को अपने से दूर कहीं अकेले नहीं भेजना चाहती थी क्योंकि उन्हें लगता था कि वह यदि कलकत्ता जाकर पढ़ेगी तो उसका ख्याल कौन रखेगा । वो वहां समय से भोजन भी नहीं कर पायेगी । उसकी तबीयत अगर कभी खराब हो जाएगी तो उसके पास अपना कोई भी नहीं होगा । जैसा कि हर मां अपने बच्चे को लेकर चिंता करती है ठीक वैसे ही प्रेरणा कि मां भी उसे लेकर चिंतित थीं ।

इस पर घर में एक बैठक होती है । बैठक यानी कि पूरे परिवार का एक साथ बैठकर किसी मुद्दे पर बात विमर्श करना । मध्यमवर्गीय परिवारों में लोग खाने के टेबल पर ही एक साथ बैठते हैं । जहां किसी भी मुद्दे पर बात विमर्श किया जाता है । इसमें अंतिम फैसला घर के मुखिया पिताजी का ही होता है ।

शाम का समय था । उसके पिताजी की ऑफिस से छुट्टी हो चुकी थी । प्रेरणा अपने घर की घड़ी को बार-बार देख रही थी कि कब उसके पिताजी ऑफिस से घर आएंगे । उसके पिताजी का ऑफिस से घर लौटने का समय हो ही आता है । पिताजी घर में प्रवेश करते हैं पर वह अपने पिता को थका देखकर कुछ भी नहीं कहती है । वह चुपचाप अपने कमरे में चली जाती है और खाने के टेबल पर होने वाली बैठक का इंतजार करने लगती है । पिताजी के थोड़ी देर आराम करने के बाद सभी लोग खाने के टेबल में एक साथ बैठते हैं ।

प्रेरणा को खाने की टेबल पर बैठते ही उसे ऐसा लगता है कि उसके कुछ बोलने के पहले ही उसकी मां उसके कलकत्ता जाकर पढ़ने की इच्छा को उसके पिता को बता देंगी । प्रेरणा एक नजर अपनी मां को देखती है । उसकी मां चुप थी क्योंकि उन्होंने पहले ही उसके कलकत्ता जाकर पढ़ने के फैसले को नकार चुकी थी । फिर भी प्रेरणा अपनी आंखों से अपनी मां को इशारा करती है । जिससे कि उसे अपने पिता के सामने बोलना भी ना पड़े और वह डांट खाने से बच जाए । लेकिन जब उसकी मां उसकी तरफ देखकर उसे चुप रहने का इशारा करती है तो वह समझ जाती है कि यह काम उसे स्वयं ही करना पड़ेगा ।

" पिताजी मैं कलकत्ता जाकर पढ़ना चाहती हूं " , प्रेरणा अपने पिताजी से कहती है । उसके पिताजी कहते हैं " क्यों ? यहां क्या स्कूल नहीं है जो तुम कलकत्ता जाकर पढ़ना चाहती हो " । प्रेरणा कहती हैं " है पिताजी , मगर वह बड़ा शहर है । वहां से तो आपने भी अपनी पढ़ाई पूरी की थी । वहां विज्ञान की अच्छी पढ़ाई होती है । मेरे नंबर भी काफी अच्छे आए हैं माध्यमिक परीक्षा में । जिसके कारण मुझे वहां एडमिशन मिलने में ज्यादा परेशानी नहीं होगी " । उसकी बातों में आत्मविश्वास थी । परन्तु उसके पिताजी भी उसे कलकत्ता जाकर पढ़ने से साफ़-साफ मना कर देते हैं । वह उदास हो जाती है । वह उस दिन खाना भी ठीक से नहीं खाती है । उसके बाद वह अपने कमरे में चुपचाप चली जाती है । वहां वह अपने बेड पर सोकर रोने लगती है और मन ही मन अपने इच्छा को दबा लेती है ।

कुछ देर बाद उसके पिताजी उसके पास आते हैं । वह अपने आंसू पोंछकर कमरे से बाहर आती हैं । उसके पिताजी उसको कहते हैं " बेटा मैं तुम्हें अकेले कलकत्ता नहीं भेज सकता हूं । इस बात को समझने की कोशिश करो । मैं तुम्हारे लिए यहां के सबसे बड़े स्कूल डी.ए.वी. में जाकर बात करूंगा । इस स्कूल में कलकत्ता की ही स्कूलों की तरह इंफ्रास्ट्रक्चर मौजूद है । जहां तुम अच्छे से पढ़ पाओगी "। प्रेरणा अपने पिताजी के बातों के जवाब में केवल " ठीक है पापा" कहकर चुप हो जाती है और अपने कमरे के खिड़की के बाहर देखते हुए एकांत मन की गहराइयों में कहीं खो जाती है । वह कर भी क्या सकती थी । उसे तो दूसरे लोगों की तरह ज़िद्द भी करना नहीं आता था । इस तरह प्रेरणा के घर वाले उसे उसकी पढ़ाई के लिए , कहीं दूर भेजने के लिए नहीं मानते हैं और उसका दाखिला डी.ए.वी. स्कूल ( डोरी ) में करवा दिया जाता है ।


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