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16.98% गीता ज्ञान सागर / Chapter 9: अध्याय 4 श्लोक 21 से 42 तक

Bab 9: अध्याय 4 श्लोक 21 से 42 तक

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श्लोक 21

 

निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः।

शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्‌॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

जिसका अंतःकरण और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है और जिसने समस्त भोगों की सामग्री का परित्याग कर दिया है, ऐसा आशारहित पुरुष केवल शरीर-संबंधी कर्म करता हुआ भी पापों को नहीं प्राप्त होता।

 

 

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श्लोक 22

 

 

यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वंद्वातीतो विमत्सरः।

समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते॥

 

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

 

जो बिना इच्छा के अपने-आप प्राप्त हुए पदार्थ में सदा संतुष्ट रहता है, जिसमें ईर्ष्या का सर्वथा अभाव हो गया हो, जो हर्ष-शोक आदि द्वंद्वों से सर्वथा अतीत हो गया है- ऐसा सिद्धि और असिद्धि में सम रहने वाला कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी उनसे नहीं बँधता।

 

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श्लोक 23 

 

गतसङ्‍गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः।

यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

 

जिसकी आसक्ति सर्वथा नष्ट हो गई है, जो देहाभिमान और ममता से रहित हो गया है, जिसका चित्त निरन्तर परमात्मा के ज्ञान में स्थित रहता है- ऐसा केवल यज्ञसम्पादन के लिए कर्म करने वाले मनुष्य के सम्पूर्ण कर्म भलीभाँति विलीन हो जाते हैं।

 

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श्लोक 24

 

( फलसहित पृथक-पृथक यज्ञों का कथन )

 

 ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्रौ ब्रह्मणा हुतम्‌।

 ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

यज्ञ में अर्पित पदार्थ भी ब्रह्म है और हवन किए जाने योग्य द्रव्य भी ब्रम्ह है तथा ब्रम्ह रूपी कर्ता द्वारा ब्रह्म रूपी अग्नि में आहुति रूपी क्रिया भी ब्रम्हा है। उस ब्रम्हा रूपी कर्म में स्थिर रहने वाले के द्वारा प्राप्त किए जाने योग्य फल भी ब्रह्म ही है।

 

 

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श्लोक 25

 

दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते।

ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

दूसरे योगीजन देवताओं के पूजनरूप यज्ञ का ही भलीभाँति अनुष्ठान किया करते हैं और अन्य योगीजन परब्रह्म परमात्मारूप अग्नि में अभेद दर्शनरूप यज्ञ द्वारा ही आत्मरूप यज्ञ का हवन किया करते हैं। (परब्रह्म परमात्मा में ज्ञान द्वारा एकीभाव से स्थित होना ही ब्रह्मरूप अग्नि में यज्ञ द्वारा यज्ञ को हवन करना है।)

 

 

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श्लोक 26

 

श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।

शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

अन्य योगीजन श्रोत्र आदि समस्त इन्द्रियों को संयम रूप अग्नियों में हवन किया करते हैं और दूसरे योगी लोग शब्दादि समस्त विषयों को इन्द्रिय रूप अग्नियों में हवन किया करते हैं।

 

 

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श्लोक 27

 

 

सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।

आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

दूसरे योगीजन इन्द्रियों की सम्पूर्ण क्रियाओं और प्राणों की समस्त क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित आत्म संयम योगरूप अग्नि में हवन किया करते हैं (सच्चिदानंदघन परमात्मा के सिवाय अन्य किसी का भी न चिन्तन करना ही उन सबका हवन करना है।)

 

 

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श्लोक 28

 

 

द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।

स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः॥

 

 

।हिंदी अनुवाद_

 

 

कुछ मनुष्य द्रव्य से यज्ञ करने वाले है और कुछ तपस्या रूपी यज्ञ करने वाले है तथा दूसरे कितने ही योग रूपी यज्ञ करने वाले है । कुछ यत्नशील मनुष्य अहिंसा आदि व्रतों से युक्त स्वाध्याय रूपी ज्ञान यज्ञ करने वाले है।

 

 

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श्लोक 29

 

अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।

प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

अन्य योगिजन अपान वायु में प्राण वायु का हवन करते है, तथा प्राण में अपान की आहुति देते है। प्राण और अपान की गति को रोककर वे प्राणायाम के ही समलच्छ समझने वाले होते हैं।

 

 

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श्लोक 30

 

अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।

सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

 

दूसरे नियमित आहार करने वाले (साधक जन) प्राणों को प्राणों में हवन करते है। ये सभी यज्ञ को जानने वाले है, जिनके पाप यज्ञ के द्वारा नष्ट हो चुके है।

 

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श्लोक 31

 

यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्‌।

नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन! यज्ञ से बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले योगीजन सनातन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं। और यज्ञ न करने वाले पुरुष के लिए तो यह मनुष्यलोक भी सुखदायक नहीं है, फिर परलोक कैसे सुखदायक हो सकता है?

 

 

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श्लोक 32

 

एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे।

कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

इसी प्रकार और भी बहुत तरह के यज्ञ वेद की वाणी में विस्तार से कहे गए हैं। उन सबको तू मन, इन्द्रिय और शरीर की क्रिया द्वारा सम्पन्न होने वाले जान, इस प्रकार तत्व से जानकर उनके अनुष्ठान द्वारा तू कर्म बंधन से सर्वथा मुक्त हो जाएगा।

 

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श्लोक 33

 

 श्रेयान्द्रव्यमयाद्य- ज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप।

सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

हे परंतप! द्रव्यों से सम्पन्न होने वाले यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है। हे पार्थ! सम्पूर्ण अखिल कर्म ज्ञान में समाप्त होते है , अर्थात ज्ञान उनकी प्रकाष्ठा है।

 

 

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श्लोक 34

 

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।

उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

उस ज्ञान को तू तत्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दण्डवत्‌ प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म तत्व को भलीभाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्वज्ञान का उपदेश करेंगे।

 

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श्लोक 35

 

यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।

येन भुतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

हे अर्जुन! जिसको जानकर फिर तुम इस प्रकार मोह को नही प्राप्त होगे। जिस ज्ञान द्वारा तुम सम्पूर्ण भूतो को पहले अपने में और फिर मुझ (परमात्मा) में देखोगे

 

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श्लोक 36

 

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः।

सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

यदि तू अन्य सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है, तो भी तू ज्ञान रूप नौका द्वारा निःसंदेह सम्पूर्ण पाप-समुद्र से भलीभाँति तर जाएगा।

 

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श्लोक 37

 

यथैधांसि समिद्धोऽग्नि- र्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।

ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

हे अर्जुन! जिस प्रकार अग्नि लकड़ियों को जला देती है, उसी प्रकार ज्ञानरुप अग्नि सम्पूर्ण कर्मो को जला देती है।

 

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श्लोक 38

 

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।

 तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है। उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग द्वारा शुद्धान्तःकरण हुआ मनुष्य अपने-आप ही आत्मा में पा लेता है।

 

 

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श्लोक 39

 

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।

ज्ञानं लब्धवा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

जितेन्द्रिय, साधनपरायण और श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञान को प्राप्त होकर वह बिना विलम्ब के- तत्काल ही भगवत्प्राप्तिरूप परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है।

 

 

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श्लोक 40

 

अज्ञश्चश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

विवेकहीन और श्रद्धारहित संशययुक्त मनुष्य परमार्थ से अवश्य भ्रष्ट हो जाता है। ऐसे संशययुक्त मनुष्य के लिए न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है।

 

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श्लोक 41

 

योगसन्नयस्तकर्माणं ज्ञानसञ्न्निसंशयम्‌।

आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय॥

 

 

हिंदी अनुवाद_

 

हे धनंजय! जिसने कर्मयोग की विधि से समस्त कर्मों का परमात्मा में अर्पण कर दिया है और जिसने विवेक द्वारा समस्त संशयों का नाश कर दिया है, ऐसे वश में किए हुए अन्तःकरण वाले पुरुष को कर्म नहीं बाँधते।

 

 

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श्लोक 42

 

तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः।

 छित्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत॥

 

हिंदी अनुवाद_

 

इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन! तू हृदय में स्थित इस अज्ञानजनित अपने संशय का विवेकज्ञान रूप तलवार द्वारा छेदन करके समत्वरूप कर्मयोग में स्थित हो जा और युद्ध के लिए खड़ा हो जा।

 

 

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ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानकर्मसंन्यास योगो नाम चतुर्थोऽध्यायः

©©©©©©©©©©©©©©©©©©©©©©©©©

 जय श्रीकृष्ण जय श्रीकृष्ण जय श्रीकृष्ण जय श्रीकृष्ण जय श्रीकृष्ण जय श्रीकृष्ण जय श्रीकृष्ण जय श्रीकृष्ण 

 

 

 

 


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