लोग कहते हैं कि समय हर दर्द का इलाज है लेकिन क्रमशः कुछ दर्द ऐसे होते हैं जो समय समय पर ही रह रह कर दर्द देते हैं। मूर्ति को लगता रहा के उसकी बहन उसके मौसी के घर पर है, बीच बीच में जब ज़िद करती थी तो उसका दिल रखने के लिए उसकी मौसी की बेटी लक्ष्मी बन कर बात करती थी। ये बच्चे भी कितने नादान होते हैं, ज़िन्दगी का ये एक अहम सत्य है कि बच्चे ही भगवान् का रूप होते हैं क्योकि उनमे किसी प्रकार का छल, कपट, और दिखावा नहीं होता। और हम बड़े उन मासूमों को बहलाकर समझते हैं कि बहुत बड़ा काम किया है। ये विलक्षण है कि कई बार आवश्यक होता है बहलाना लेकिन शायद हर बार नहीं। या शायद बड़े हम से बेहतर जानते हैं। बात जो भी हो लेकिन अंत में बच्चे को ही जैसे तैसे समझा दिया जाता है।
ऐसे ही समय गुज़रता रहा लेकिन मूर्ति के शारीरिक अवस्था कमजोर हो गयी। चिकित्सकों के अनुसार, उसके शरीर की प्रतिरोधक क्षमता कम हो गयी थी। थोड़े से मे ही बुखार, थोड़े से मे ही बिल्कुल बीमार पड़ना। बड़े बुजुर्ग कहते हैं कि जब जुड़वाँ बच्चों मे से किसी भी एक को मौत हो जाती है तो दूसरा कमजोर पड़ जाता है। इस बात के कितनी सच्चाई है और कितना भ्रम ये निर्णय करने का अधिकार नहीं है मुझे, परंतु मूर्ति के लक्षण तो कही ना कही उसी बात की ओर इशारा कर रही थी। मूर्ति जो कभी इतना हँसती खिलखिलाती थी, वो अब जैसे मुरझाई गयी है। और फूल कभी मुरझाए अच्छे नहीं लगते। वो चुप सी रहने लगी। मूर्ति के माता पिता को ये बात खलने लगी और उन्होने एक मनोवैज्ञानिक के सुझाव पर उसे एक प्रसिद्ध संगीत विद्यालय मे दाखिला करवा दिया जिससे के विद्यालय समय के पश्चात उसे खुद मे खोने का समय ही ना मिलें।
वहा उसकी उम्र के बहुत से छोटे छोटे बच्चे आते थे। उसका मन लगता तो था पर कही ना कही अवचेतना मे ही सही पर वो कहीं अकेली सी महसूस करने लगी। लेकिन मूर्ति के संगीत गुरु उसे बेहद पसंद करते थे क्योंकि उन सब मे से वो सर्वश्रेष्ठ तीन उन संगीत फनकार थीं जिसकी आवाज इतनी मधुर थी जो किसीको भी मंत्रमुग्ध कर दें। जब मूर्ति पाँचवी कक्षा में पढ़ रही थी तब एक दिन जब उसने फिर से ज़िद की लक्ष्मी से मिलने की, तब सारा सन्नाटा टूट सा गया। ऐसे तो अक्सर ही वो ज़िद करती थी पर इस बार बढ़ते उम्र के साथ ज़िद का माप भी बढ़ गया। हालांकि, उसके माता पिता ने ये निर्णय कर लिया था कि उसे सब बता दें, लेकिन उन्होने नहीं सोचा था कि इस तरह से बताया जाएगा।
मूर्ति के ज़िद के आगे एक ऐसा सच था जो उसकी जिंदगी को पूरी तरह से बदल सकती है। एक ऐसा सच जो उसे तोड़ देगा। आखिरकार उसे ये सब बताया गया लेकिन वो कहते हैं ना कि सच किसी काल्पनिकता से अधिक विचित्र होता है, और मूर्ति को भी ऐसा कुछ उम्मीद ना थी। उसकी हालत ऐसी के शब्दों में ज़ाहिर ना किया जाएं। उसे समझ नहीं आ रहा था कि करें तो क्या करें, मानो जैसे उसके सर पे कोई बड़ा पहाड़ टूट पड़ा। वो मानसिक और मनोवैज्ञानिक रूप से टूट गयी। उसका तो जैसे स्वभाव ही बदल गया। वो बस अपने कक्ष में पड़ी पड़ी रोटी और अपने डायरी मे लिखे हुए उन शब्दों को पढ़ पढ़ कर रोती जो उसने अपने बहन के लिए लिखे थे। कुछ अरमान, कुछ योजना जो शायद उस दिन के इंतज़ार में जब लक्ष्मी घर वापस आयेगी। अगले कुछ दिनों तक उसने बोलना छोड़ दिया और उसका खाना भी कम हो गया था। हँसी और खुशी जैसे शब्द जैसे विलुप्त हो गए थे उसकी ज़िन्दगी से। करीब, हफ्ते बाद उसने पुनः अपना स्कूल बैग उठाया और स्कूल चली गई। वहां से भी शिक्षकों की यही शिकायत रही कि मूर्ति बहुत ज़्यादा बदल चुकी है। फिर जब मूर्ति के माता पिता ने समझाया तो शिक्षकों ने निर्णय लिया कि अब उसे पहले इस सदमे से निकाल कर लाना होगा। डांट फटकार से शायद बात और भी बिगड़ जाए। वहां दूसरी ओर मूर्ति के संगीत गुरु को भी इस संदर्भ में पूर्वसूचित किया गया था। और उन्होने भी अपनी ओर से हर संभव प्रयत्न करने का वायदा किया।
संगीत की शिक्षा के दौरान, एक नई लड़की का दाखिला हुआ। गुरु जी ने रोहिणी को मूर्ति के साथ बिठाया। समय के साथ साथ करीब छः से आठ महीने बाद मूर्ति के व्यक्तित्व मे सुधार के लक्षण दिखने शुरू हुए। रोहिणी अब उसकी बहुत अच्छी सहेली बन चुकी थी। दोनों एक ही साथ बैठते, बातें करते और छोटे मोटे खेल खेलते। मूर्ति के माता पिता ने तो जैसे दोनों ही बेटी खो दिए थे, लेकिन वो ऊपरवाला इतना निर्दयी नहीं, और उनकी दूसरी बेटी वापस उन्हे मिल गयी। धीरे धीरे वो बढ़ने लगी और मूर्ति की आवाज़ मे तो जैसे सुर संगम छिपा था। हालांकि, रोहिणी ने एक साल बाद संगीत संस्थान छोड़ दिया था पर दोनों की दोस्ती कायम रही।