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90% सनातन गंगा / Chapter 18: कर्म का फल

Kapitel 18: कर्म का फल

. कर्म का फल

भीष्म पितामह रणभूमि में शरशैया पर पड़े थे। वो अगर हल्का सा भी हिलते तो शरीर में घुसे बाण भारी वेदना के साथ रक्त की पिचकारी सी छोड़ देते। ऐसी दशा में उनसे मिलने सभी आ जा रहे थे। श्री कृष्ण भी दर्शनार्थ आये। उनको देखकर भीष्म जोर से हँसे और कहा आइये जगन्नाथ.. आप तो सर्व ज्ञाता हैं, सब जानते हैं, बताइए मैंने ऐसा क्या पाप किया था, जिसका इतना भयावह दंड मुझे मिला

श्री कृष्ण : पितामह ! आपके पास तो वह शक्ति है, जिससे आप अपने पूर्व जन्म देख सकते हैं। आप स्वयं ही देख लेते।

भीष्म : हे देवकी नंदन! मैं यहाँ अकेला पड़ा और कर ही क्या रहा हूँ ? मैंने सब देख लिया.. अभी तक 100 जन्म देख चुका हूँ। मैंने उन 100 जन्मों में तो एक भी ऐसा कर्म नहीं किया जिसका परिणाम ये हो कि मेरा पूरा शरीर बिंधा पड़ा है, हर आने वाला क्षण और ज्यादा पीड़ा लेकर आता है।

कृष्ण : पितामह ! आप एक जन्म और पीछे जाएँ, आपको स्वयं ही उत्तर मिल जायेगा। भीष्म ने पुनः ध्यान लगाया और देखा कि 101 जन्म पूर्व वो एक नगर के राजा थे। एक मार्ग से अपनी सैनिकों की एक टुकड़ी के साथ कहीं जा रहे थे। इतने में एक सैनिक दौड़ता हुआ आया और बोला "राजन ! मार्ग में एक सर्प पड़ा है। यदि हमारी टुकड़ी उसके ऊपर से गुजरी तो वह मर जायेगा।

भीष्म ने कहा "एक काम करो । उसे किसी लकड़ी में लपेट कर झाड़ियों में फेंक दो।" सैनिक ने वैसा ही किया। उस सांप को एक लकड़ी में लपेटकर झाड़ियों में फेंक दिया। दुर्भाग्य से झाड़ियां कंटीली थी। वह सर्प उसमें ओर ज्यादा फंस गया। जितना उससे निकलने का प्रयास करता वो और अधिक फंसता जाता। कांटे उसकी देह में अंदर तक गड़ गए ओर खून रिसने लगा, धीरे धीरे वह मृत्यु के मुंह में जाने लगा। और अंत में कुछ दिन की तड़प के बाद उसके प्राण निकल पाए।

भीष्म : हे त्रिलोकी नाथ, आप तो जानते हैं कि मैंने ऐसा कुछ भी जानबूझ कर नहीं किया, अपितु मेरा उद्देश्य तो उस सर्प की रक्षा करना था तब फिर ये परिणाम क्यों ?

कृष्ण : तात श्री ! हम जान बूझ कर क्रिया करें या अनजाने में किन्तु क्रिया तो हुई न। उसके प्राण तो गए ना। ये विधि का विधान है कि जो क्रिया हम करते हैं उसका फल हमें भोगना ही पड़ता है।

क्योंकि आपका पुण्य इतना प्रबल था कि 101 जन्म उस पाप के फल को उदित होने में लग गए, किन्तु अंततः उसका फल मिल कर ही रहा।

अतः हर दैनिक क्रिया सावधानी पूर्वक करें। जीवन में कैसा भी दुख और कष्ट आये पर श्री कृष्ण का भजन मत छोड़िये।

क्या कष्ट आता है तो हम भोजन करना छोड़ देते हैं ?

क्या बीमारी आती है तो हम सांस लेना छोड़ देते हैं ?

नहीं ना ! फिर जरा सी तकलीफ़ आने पर हम भक्ति / भजन करना कैसे छोड़ सकते हैं ?

जीवन में कभी भी दो चीज नहीं छोडिए - भजन और भोजन ! भोजन छोड देंगे तो जीवित नहीं रहेंगे और भजन छोड देंगे तो कहीं के नहीं रहेंगे।

सही मायने में भजन ही भोजन है ।


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